रचना चोरों की शामत

कुदरत के रंग

कुदरत के रंग

Friday 1 May 2020

ससुराल नहीं जाऊँगी





   दो दिन बाद ही शुभदा का विवाह है, आज मेहंदी की रस्म के लिए आमंत्रित की हुई सखियाँ ढोलक की थाप पर झूम रही थीं, मंगल गीत गाए जा रहे थे. उसके सपनों का राजकुमार प्रभात बारात लेकर आएगा और शुभदा सात फेरों के बंधन में बंधकर हमेशा के लिए उसकी हो जाएगी. सखियों से घिरी शुभदा के हाथों व पैरों में मेहंदी रचाई जा रही थी. हाल में धीमा सा मधुर संगीत गूँज रहा था. खुशनुमा वातावरण में चाय-नाश्ता, सखियों का थिरकना मेहंदी रचवाना आदि सारे कार्य संपन्न हो रहे थे. शुभदा एक तरफ तो प्रिय-मिलन के सतरंगी सपनों में खोई हुई थी दूसरी तरफ इस शुभ अवसर पर अपनी प्रिय सखी लीना की अनुपस्थिति से उसके मन के एक कोने में उदासी की बदली सी छाई हुई थी. रह रहकर विचारों का सैलाब सा उठ रहा था कि आखिर क्या कारण है जो लीना उसकी शादी के महत्वपूर्ण आयोजन में भी शामिल न हो सकी. शुभदा ने उसे निमंत्रण पत्र भेजने के साथ ही एक सप्ताह पहले आने का अनुरोध किया था. फोन पर तो उसने उत्साहपूर्वक अपनी सहमति भी दी थी मगर जब दूसरी बार बात की तो उसने इतना ही कहा था-

    “शुभि, अगर मैं न आ सकूँ तो बुरा न मानना, तुम तो जानती ही हो कि मैं यहाँ कितनी विपरीत परिस्थितियों में घिरी हुई जी रही हूँ...हो सकेगा तो सुमेर के साथ   

एक दिन के लिए आ जाऊँगी. मेरी अनंत शुभकामनाएँ सदैव तुम्हारे साथ हैं, ईश्वर से प्रार्थना है की वो तुम्हारी झोली खुशियों से भर दे.”

लीना के इस तरह बोलने के अंदाज़ से ही शुभदा के मन को शंकाओं ने घेर लिया था. एक गहरी साँस लेकर शुभदा ने अपने मेहंदी भरे उस हाथ को निहारा जिसके   बीचों-बीच मेहंदी से “प्रभात” का नाम लिखा हुआ था. उसे लगा जैसे वो मुस्कुराकर कह रहा हो-

“शुभि डियर, क्या सोच रही हो, आज के दिन भी कोई उदास होता है क्या?”

शुभदा ने चौंक कर आसपास देखा तो उसे कोई नज़र नहीं आया. उसकी सहेलियों  की हँसी ठिठोली अचानक न जाने क्यों खुसुर-पुसुर में बदल गई थी. वे उससे काफी दूर झुण्ड बनाकर किसी चर्चा में लगी हुई थीं. शुभदा को उनकी बातें सुनाई नहीं दे रही थीं तो उसे थोड़ी झल्लाहट सी हुई कि आखिर वे सब उसे नज़रंदाज़ क्यों कर रही हैं? ज़रूर कुछ बात उससे छिपाई जा रही है.

उसने बेसब्र होकर अपनी मुँह लगी सहेली चित्रा को आवाज़ देकर बुलाया और पूछा तो वो टालमटोल करने लगी. अब तो शुभदा को यकीन हो गया कि अवश्य कुछ अप्रिय घटना हुई है. उसने चित्रा को अपनी कसम खिलाकर सच बात बताने को कहा तो वो रो पड़ी और सुबकते हुए खुलासा किया कि लीना ने फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली है. यह बात उसे नम्रता ने बताई जो उसे इधर आते हुए रास्ते में पड़ने वाली लीना की बिल्डिंग के बाहर मिली थी. नम्रता को वहाँ भीड़ देखकर लोगों से पूछने पर मालूम हुआ. 
हम तुम्हें यह बात नहीं बताना चाहती थीं... तुमने अपनी कसम क्यों खिलाई शुभि...तुम्हारा विवाह होने वाला है. अब तुम्हें स्वयं पर नियंत्रण रखना ही होगा. ईश्वर की इच्छा के आगे किसी का बस भी तो नहीं चलता...”

 चित्रा की बातें सुनकर शुभदा की तो जैसे साँसें ही थम गईं. उसकी आँखों के आगे अँधेरा सा छाने लगा. फिर रोते सुबकते हुए बोली-

 “यह तुम क्या कह रही हो चित्रा, लीना जैसी दिलेर लड़की आत्महत्या कैसे कर सकती है?”

 “मैं भी यही सोचती थी शुभि, मगर...” कहते हुए चित्रा की आँखों में आँसू आ गए
 शुभदा की दुःख के अतिरेक से आँखें मुंदती चली गईं और उस अँधेरे में बीते दिनों  के चित्र प्रतिबिंबित होने लगे.

 शुभदा और लीना मुम्बई महानगर की एक ही टाउनशिप में रहती थीं। उनके फ्लैट अलग अलग बिल्डिंग में आसपास ही थे. बचपन से एक ही विद्यालय में पढ़ने के कारण उनकी आपस मे गहरी दोस्ती हो गई थी। स्कूली शिक्षा के बाद वे एक ही कालेज में दाखिला लेकर कॉलेज के ही लड़कियों के हॉस्टल में रहने लगी थीं। ग्रेजुएशन के बाद दोनों सखियों को अलग-अलग कंपनियों में जॉब भी मिल गया था।

 आधुनिक परिवेश में पली बढ़ी लड़कियाँ अपने अधिकारों के प्रति सजग होती ही हैं. ऊपर से महानगर की हवा उनको और अधिक पंख फैलाना सिखा देती है. लेकिन लीना और शुभदा आधुनिकता की हवा से कोसों दूर अपनी पढ़ाई में ही व्यस्त रहती थीं. हाँ, अपने अधिकारों के प्रति सजग अवश्य थीं.  उनमें अक्सर चर्चा हुआ करती थी कि वे विवाह अपने माँ-पिता की पसंद के लड़के से और मुंबई में ही करेंगी ताकि आड़े समय में अपने माता-पिता की देखभाल भी कर सकें, मगर ससुराल की बंदिशों के बोझ से अपनी ज़िंदगी को कभी बोझिल नहीं बनने देंगी।  

 लेकिन जब मन की कोरी किताब पर किसी का प्रेम अपने हस्ताक्षर कर देता है तो किताब के बाकी कोरे पन्ने खुद ब खुद कथा लिखते चले जाते हैं। जॉब के दौरान लीना के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ था। उसका परिचय कार्यालय के ही एक हमउम्र सहकर्मी सुमेर से हुआ और उनका मित्रवत मेलजोल आगे बढ़कर नए रिश्ते में परिवर्तित होने लगा और उन्होंने हमेशा के लिए एक बंधन में बंधने का निर्णय ले लिया था।

 सुमेर के पिता का कुछ समय पूर्व ही देहांत हो चुका था. मुंबई की ही एक सोसायटी में उनका अपना फ़्लैट था. उसकी माँ ने पति की मृत्यु के बाद उनके बीमे की रकम से फ़्लैट के एक कमरे में ही ब्यूटी पार्लर खोलकर सुमेर की शिक्षा पूरी करवाई. अब चूँकि सुमेर की नौकरी लग गई थी तो उसके विवाह के रिश्ते भी आने लग गए थे. सुमेर ने जब माँ को लीना के बारे में विस्तार से बताया तो उसने लड़की की पारिवारिक पृष्ठभूमि से संतुष्ट होकर सहमति दे दी और लीना के घर वालों से मिलकर बात पक्की कर ली. नौकरी की व्यस्तता और अचानक यह सब घटित होने के कारण लीना यह बात शुभदा को नहीं बता सकी थी,  अतः  छुट्टी के दिन उसके घर जाकर मोबाइल में सुमेर के ढेर सारे चित्र दिखाए और  सारी बातें विस्तार से बताकर विवाह तय होने की जानकारी दी. 

लीना का चयन निश्चित ही श्रेष्ठ था, शुभदा ने उसे गले से लगा लिया और नए सुखमय जीवन के लिए दिल से बधाई तथा शुभकामनाएँ दीं.

 इस तरह शीघ्र ही लीना विवाह करके ससुराल चली गई. उसका ससुराल अलग इलाके में होते हुए भी अधिक दूर नहीं था, अतः वो हर सप्ताह अपने मम्मी पापा से मिलने अवश्य आती थी और शुभदा से मिले बिना वापस नहीं जाती थी. शादी के बाद उसके सौंदर्य में खूब निखार आ गया था. वो शुभदा को सुमेर के साथ आपसी प्यार से परिपूर्ण किस्से खूब चाव से सुनाती थी।
मगर यह सब चार दिन की चाँदनी थी. अब लीना जब भी आती, शुभदा को गुमसुम ही नज़र आती थी. शुभदा उसे कुरेदकर पूछती तो वो यह सोचकर टाल देती थी कि यह बात कहीं उसके माँ-पिता के कान में न पड़ जाए.   

 इस तरह दो वर्ष बीत गए. लीना का आना भी धीरे-धीरे कम होने लगा था इस बीच शुभदा का रिश्ता भी मुंबई के ही एक उपनगर में रहने वाले प्रभात सिन्हा से तय हो गया और शीघ्र ही विवाह की तिथि भी पक्की कर ली गई. शुभदा लीना को यह शुभ समाचार देने को व्याकुल थी.

इस बार लीना लम्बे समय बाद मायके आई थी. वो जब शुभदा से मिली तो शुभदा उसे देखकर हैरान रह गई थी.  हमेशा चहकने और खिली-खिली रहने वाली लीना गुमसुम और काफी कमज़ोर नज़र  आ रही थी. पूछने पर रो पड़ी थी और शुभदा के दबाव बनाने पर रोते-रोते बताया था कि तीन महीने हुए, उसके गर्भवती होने से उसका स्वास्थ्य गड़बड़ रहने लगा है जिससे घर के हालात काफी बिगड़ गए हैं. मायके भी इसी वजह से आना नहीं हुआ. वो इस उम्र में माँ-पिता को मानसिक कष्ट नहीं देना चाहती.          

शादी के बाद उसने आरम्भ में ही रसोई के लिए एक महिला बावर्ची राधा तथा अन्य कार्यों के लिए अलग महरी नियुक्त कर ली थी. राधा के आते ही सास सुभद्रा देवी से पूछकर वो अपनी देखरेख में भोजन तैयार करवाती और फिर रात के भोजन के लिए शाम को ही उसे आने की हिदायत देकर अपना तथा सुमेर का भोजन टिफिन-पैक करके सुमेर के साथ ही कार्यालय के लिए निकल जाती थी. 

शाम को घर आते ही थकी होने के बावजूद सबके लिए भोजन परोसती और रसोई सहेजकर सुबह की तैयारी करके ही सोने के लिए जाती थी. लेकिन अब सास प्रतिभा देवी राधा के हर कार्य में मीन मेख निकालने लगी थी और सुमेर से शिकायत करती. वो चाहती थी कि खाना लीना को ही बनाना चाहिए. उसने भी आज तक कामकाजी होने के बावजूद रसोई स्वयं सँभाली है, तो बहू क्यों नहीं कर सकती...?  सुमेर पहले तो माँ को समझाता रहता था कि घर से काम करने और दफ्तर में पूरा दिन कार्य करने में बहुत अंतर है लेकिन माँ के जिद पकड़ लेने पर जब एक दिन अकेले में सुमेर ने लीना से कहा-

 “लीना डियर तुम ही समायोजन करने का प्रयास करो, मैं माँ की शिकायत से परेशान रहने लगा हूँ.”

“यह तुम कैसे कह रहे हो सुमेर, क्या मैं इंसान नहीं हूँ जो दोहरा बोझ लादकर चलूँ? माँ जी को अगर राधा का काम पसंद नहीं है तो वे अपने लिए स्वयं भी तैयार कर सकती हैं...!”

“मैं ऐसा जवाब माँ को नहीं दे सकता लीना, तुमसे नहीं बने तो नौकरी छोड़ दो. वैसे भी मेरी आमदनी परिवार के लिए बहुत काफी है. ”

फिर जब सुमेर ने ही साथ नहीं दिया तो लीना का दिल टूट गया. उसके संस्कार ऐसे नहीं थे कि पति का विरोध करके रिश्ते में दरार पैदा कर ले. इससे उसके मम्मी पापा भी व्यर्थ परेशान होंगे अतः उसने नौकरी के साथ-साथ दोनों समय का खाना बनाना भी आरम्भ कर दिया.

  इस तरह कुछ समय सरक गया और लीना गर्भवती हो गई. अब उससे नौकरी के साथ ही घर के कार्य नहीं हो पाते थे अतः उसका स्वास्थ्य कमज़ोर रहने लगा था. आखिर मन मारकर उसने नौकरी से इस्तीफा दे दिया. लेकिन पूरा दिन घर में रहकर भी उसे आराम तो नसीब नहीं हुआ, बल्कि सास की फरमाइशें बढ़ने लगीं. सुमेर के दफ्तर जाते ही उसका तानाशाही रुख शुरू हो जाता था और वो उसे ताने-तुनकों से छलनी किया करती. आराम करने के लिए कमरे में जाते ही उसकी पार्लर में आने वाली महिलाओं के चाय-नाश्ते के लिए पुकार आरम्भ हो जाती थी.

   लीना पति को बिना बताए सब कुछ चुपचाप झेलती रहती और सास के ऊपर कभी गुस्सा नहीं करती थी. सुमेर की माँ के आगे बिल्कुल नहीं चलती थी. वो सुमेर को छोड़ नहीं सकती थी और सुमेर माँ को अकेली कैसे छोड़ दे...? सुमेर के साथ यह उसका प्रेम विवाह था, उसने लीना को माँ के शुष्क स्वभाव के बारे में पहले ही बता दिया था मगर लीना को विश्वास था कि अपने मृदु व्यवहार से उनका दिल जीत लेगी लेकिन अब उसे अहसास होने लगा था कि परिस्थितियों को बदलना इतना आसान नहीं. उसका शांत रहना भी सास को चुभता था और वो लीना को झगड़ने के लिए उकसाती थी ताकि सुमेर के सामने उसे नीचा दिखा सके.

वो लीना को एक पल भी बैठने न देती और कुछ न कुछ आदेश दिया करती. सुमेर के ध्यान न देने और अपने अधिकारों का हनन होते देखकर विवश होकर उसने पारिवारिक अदालत में अपनी समस्या के समाधान के लिए सास से अलग रहने कि के लिए अर्जी दे दी. उसके बाद उन तीनों को न्यायालय के परामर्श केंद्र में बुलाकर काउंसलिंग द्वारा समझाइश देकर वापस भेज दिया गया था. घर पहुँचकर तो सास और भी बिफरी शेरनी की तरह ऊल-जुलूल व्यवहार करने लगी थी. सुमेर ने भी माँ के खिलाफ कुछ सुनने से इनकार कर दिया था.

उसकी दास्तान सुनकर शुभदा चिंतित हो गई और उसने लीना को एक बार फिर अर्जी देकर अपनी अपनी माँग दोहराने की सलाह दी लेकिन लीना ने बताया था कि सुमेर ऐसा नहीं चाहता था.  अब वो बच्चे के जन्म तक सब्र करके समय निकाल लेगी फिर हो सकता है परिस्थितियों में कुछ सुधार आ जाए।

शुभदा ने उसे फोन पर बात करते रहने की हिदायत देकर विदा किया था। शुभदा को यह आभास तक नहीं था कि उनका यह मिलना और विदाई अंतिम थी।

शुभदा को संदेह ही नहीं पूरा विश्वास था, कि लीना ने सास की प्रताड़नाओं से परेशान होकर ही यह कदम उठाया होगा. किसी तरह रुलाई रोककर शुभदा सहसा माँ को जोर से आवाजें लगाने लगी. बेटी की ऊँची आवाज़ से माँ-पिता दोनों ही तुरंत वहाँ आ गए. 

विनीता देवी ने बेटी को रोते हुए देखा तो समझ गई कि उसे लीना वाली घटना का पता चल चुका है. उसने बेटी को गले से लगाकर धैर्य बँधाते हुए कहा-

“मन भारी न करो बेटी, हम सबको लीना के दुखद अंत पर बहुत अफ़सोस है, लेकिन
ईश्वर की इच्छा के आगे किसी की नहीं चलती.”

“नहीं माँ, यह ईश्वर की इच्छा नहीं शैतान सास की सोची समझी चाल है.
मेरी सखी इतनी कमज़ोर दिल नहीं थी... लेकिन जो कुछ हुआ है, उसने मुझे सोचने पर विवश कर दिया है. मैंने तय किया है कि मैं ससुराल नहीं जाऊँगी.”

बेटी की बात सुनकर पिता, अरविन्द सिन्हा के चेहरे का रंग ही उड़ गया. हकबकाकर बोल पड़े-

“यह तुम क्या कह रही हो बेटी?  घर मेहमानों से भरा हुआ है. लीना की आत्महत्या के दोषियों को सजा अवश्य मिलेगी. मगर तुम इसके लिए क्यों अपना सुख और हमारा चैन छीनना चाहती हो...? और यह  आवश्यक नहीं कि हर सास बुरी हो...”

“लेकिन पिताजी, मुझे ऐसा कोई प्रयोग नहीं करना जिससे  मेरी ज़िंदगी दाँव पर लग जाए.”

“बिटिया, क्या हमारे समाज, हमारी संस्कृति के कोई मायने नहीं?  मेहमान सुनेंगे तो क्या कहेंगे?”

“संस्कार या संस्कृति के नाम पर ये नियम केवल बेटियों के लिए ही क्यों बनाए गए पिताजी...? हो सकता है पुराने समय की यही माँग हो लेकिन आज तो बेटा हो या बेटी,  अपने माँ-पिता की इकलौती संतान हो सकते हैं... लीना भी परिवार में इकलौती बेटी थी और मैं भी आपकी इकलौती बेटी ही हूँ... हमारे माँ-पिता भी अकेले में इसी परिस्थिति के शिकार हो सकते हैं...उन्हें भी देखरेख की आवश्यकता हो सकती है...!  फिर आपके समाज ने पुत्रों के माँ-पिता को ही बहुओं पर शासन करने का अधिकार क्यों दिया हुआ है...? क्या पुत्रियों के माँ-पिता इसी तरह दामाद पर शासन कर सकते हैं...?  आज आप देख ही रहे हैं न... आपके आदर्श आपकी संस्कृति किस तरह धरे रह गये...लीना तो एक नन्हीं जान के साथ अपनी जान से गई ही उसके माँ-पिता की क्या हालत हुई होगी... आखिर वो उनकी इकलौती संतान थी!

“लेकिन बेटी समाज को एकदम बदलना इतना आसान नहीं है, जो कहते हैं वे भी करने के लिए आगे नहीं आते.”

“मगर मैं समाज को बदलने का प्रयास अवश्य करूँगी पिताजी चाहे मुझे आजीवन विवाह न करने का संकल्प लेना पड़े...स्त्रियों के शोषण के नियम तो नर समाज ने स्वयं ही बनाए हैं फिर जब सास-बहू के मामले सर चढ़कर बोलने लगते हैं तो स्त्री को ही स्त्री की दुश्मन ठहराकर यही समाज अपना पल्ला क्यों झाड़ लेता है...? ज़रा इतिहास पर नज़र डालिए पिताजी, क्या पुरुष भी पुरुष के दुश्मन नहीं होते? यानी मीठा मीठा गप्प और कड़वा कड़वा थू...? मगर आज की पढ़ी लिखी बालाएँ उनकी इन चालाकियों और कुटिल चालों को अब बलाएँ बनकर मात देने में सक्षम हैं. जब कानून ने आज नारी को हर क्षेत्र में समानता के अधिकार दिए हैं तो  फिर यह समाज उसका पालन क्यों नहीं करता,  क्या ऐसा करना भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है? स्पष्ट है कि संस्कारों की आड़ में आज भी नर-समाज नारी के अधिकार हनन करना अपना अधिकार मानता है. लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूँगी।

इस मामले में मैं भी समान अधिकार चाहती हूँ। अब वो ज़माना नहीं रहा जब बेटियों को सिर्फ घरेलू कामकाज इसलिए सिखाए जाते थे कि उन्हें ससुराल में बहुरानी कम,  नौकरानी अधिक बनकर रहना होता था। आज माँ-पिता के लिए बेटियों को उच्च शिक्षित बनाना ही प्राथमिकता है ताकि वे आत्मनिर्भर होकर हर परिस्थिति का सामना करने में सक्षम हों. बेटियाँ भी दहेज से मुक्ति और सास की कैद से आज़ादी ही चाहती हैं पिताजी, और मैं भी... यह शादी अब सिर्फ एक ही शर्त पर हो सकती है कि जिस तरह शादी के बाद मुझे विदा किया जाएगा, उसी तरह प्रभात को भी उसके माता-पिता को विदा करना पड़ेगा. बेटियों के लिए बबूल बोने वाले समाज को अब उसके कांटों की चुभन  भी सहन करनी पड़ेगी।” कहते हुए शुभदा रो पड़ी।

“बड़ी अजीबोगरीब शर्त है तुम्हारी शुभि, ऐसा भी कभी हुआ है? बुजुर्ग दंपति में से किसी एक के रह जाने के बाद उसकी देखभाल कौन करेगा?”

 “जो कभी नहीं हुआ वो अब हुआ करेगा पिताजी... संतान अगर चाहे तो अपने माँ पिता को, फिर वे बेटी के माँ-पिता हों या बेटे के, निकट रखकर भी उनका पूरा ध्यान रखा जा सकता है। इससे बेटियों के माता पिता को भी वर पक्ष के आगे कभी अपमानित नहीं होना पड़ेगा।" सुबकते हुए शुभदा बोली.

 “तुम्हारी बात में वज़न तो है बेटी, लेकिन मैं समधी जी के आगे तुम्हारी शर्त कैसे रखूँ समझ नहीं आता.”  कहते हुए सिन्हा जी चिंतातुर मुद्रा में वहाँ से उठकर चले गए.

माँ शुभदा को चुप कराने में लगी रही.

===================   

विधि में स्नातक अभिजीत वर्मा पारिवारिक जिला कोर्ट में सरकार की तरफ से काउंसलर के तौर पर नियुक्त थे. अपने बरसों के अनुभव से वे जितने भी केस कोर्ट के निर्देशानुसार काउंसलिंग द्वारा सुलझाते थे वे समाचारपत्रों की सुर्खियाँ तो तत्काल बन जाते थे लेकिन वही केस दो-दो तीन-तीन बार वापस आने के बाद भी उलझे हुए रह जाते थे। उनको समझ में नहीं आता था कि आखिर उनसे गलती कहाँ होती है. ऐसे ही एक केस की परिणति में “बहू द्वारा फाँसी लगाकर आत्महत्या” का वाकया आज ही जब समाचार पत्र में उन्होंने पढ़ा तो सास बहू का नाम चित्र के साथ देखकर उनका कलेजा मुँह को आ गया. उनके सामने अपनी कार्यशैली के प्रति अनेक सवाल खड़े हो गए. लीना नाम पढ़ते ही वे जान गए कि जिस सास-बहू की काउंसलिंग करने के बाद उन्होंने समझौता करवाने का प्रयास किया था,  यह दुखद घटना उसी प्रयास का दुष्परिणाम है।

कोर्ट से उन्होंने चार दिन की छुट्टी ली हुई थी. दो दिन बाद ही उनके इकलौते बेटे का विवाह है. घर में ख़ुशी का माहौल है, मंगल कार्य संपन्न हो रहे हैं, बैठक में मेहमानों की हँसी-ठिठोली चल रही है. ऐसे में यह दिल दहला देने वाला समाचार पढ़कर उनका दिल अपराध बोध से भारी हुआ जा रहा था.

वे मेहमानों की नज़र बचाकर अपने कमरे में आकर चिंतन की मुद्रा में लेट गए.
तभी अचानक उनका मोबाइल बज उठा. देखा तो समधी जी का नंबर था. कुछ संयत  होकर उन्होंने मोबाइल कान से लगाया तो उधर से सिन्हा जी डूबी हुई आवाज़ में कह रहे थे-

“अभिवादन वर्मा जी, मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ... मगर कैसे कहूँ, जुबान साथ नहीं दे रही...”

“ऐसी क्या बात हो गई सिन्हा जी,  आप बेफिक्र होकर बताइये, शादी की तैयारियाँ तो पूरी हो चुकी होंगी न...”

“जी वो सब तो हो चुका है, मगर क्या है कि आपने मुंबई की एक बहू द्वारा आत्महत्या का समाचार तो पढ़ा या सुना ही होगा...” 

“जी हाँ, पढ़कर बहुत अफ़सोस हुआ. ईश्वर मृतका की आत्मा को शांति प्रदान करें. मगर आप इतने विचलित क्यों लग रहे हैं, कोई परेशानी तो नहीं...?”

“बात परेशान करने वाली ही है जी,  मृतका लीना,  मेरी बेटी की अन्तरंग सखी थी. इस समाचार ने उसे काफी उद्वेलित कर दिया है. उसका कहना है कि लीना की मृत्यु की ज़िम्मेदार उसकी सास ही है। 
मुझे अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है, वर्मा जी, कि शुभदा बेटी ने शादी के बाद विदा होकर ससुराल जाने से साफ़ इनकार कर दिया है. वो कहती है कि शादी के बाद वो केवल पति-गृह जाएगी. प्रभात के माता पिता को मेरी तरह बेटे की भी विदाई करनी पड़ेगी, अन्यथा वो शादी नहीं करेगी. अब आप ही बताइये इस स्थिति का सामना मैं किस तरह करूँ?”

वर्मा जी तो पहले ही अपराध बोध के बोझ से छटपटा रहे थे, समधी जी की बात से यह जानकर कि लीना उसकी बहू की सहेली थी, उनकी छटपटाहट कई गुना बढ़ गई. उनका दिमाग कुछ पल खामोश रहकर मामले का विश्लेषण करने में गुम हो गया.  

उन्हें अपनी बहू की माँग से समझ में आ गया कि उनसे गलती कहाँ होती है। शुभदा के निर्णय ने उनकी कार्यशैली पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिया था. उन्होंने तय कर लिया कि इस तरह के मामलों में अब वे सास-बहू को सुलह करने की समझाइश कदापि न देंगे बल्कि बेटे पर ही गृहस्थी अलग करने का दबाव बनाएँगे. वे सास-बहू का तलाक तो नहीं करवा सकते लेकिन उनके इस निर्णय से निश्चित ही पति-पत्नी के आपसी तलाक के मामले भी कम हो जाएँगे.

पहले लगता था कि पति-पत्नी के बीच तलाक के मामले उनकी आपसी वजह होती है, लेकिन कुछ वर्षों से परिवार परामर्श केंद्र में पति या परिवार से अलग होने के लिए अर्जी लेकर आने वाली अधिकांश महिलाएँ पति से नहीं सास और ननद के तानों से परेशान होने के कारण परिवार से अलग होने की माँग लेकर आ रही थीं। सर्वेक्षणों के अनुसार भी पति-पत्नी में तलाक के कारणों में अधिकांश मामले सास-बहू के बीच की अनबन के ही होते थे। अतः वे कुछ त्वरित निर्णय लेते हुए बोल पड़े-

“ओह सिन्हा जी,  लीना के दुखद अंत का जिम्मेदार कुछ हद तक मैं भी हूँ क्योंकि उसकी पारिवारिक अदालत में सास से अलग होने की अर्जी पर सुलह मैंने ही करवाके वापस भेजा था.

 इस तरह मैं भी कमोबेश शुभदा बेटी का अपराधी हूँ. जो अस्वस्थ पुरातन कुप्रथाएँ बेटियों का जीवन लीलती रहें उनका विलय और स्वस्थ नूतन प्रथाओं का उदय आज के परिपेक्ष्य में अति आवश्यक है और इसका सूत्रपात मैं अपने घर से ही करूँगा.

मुझे शुभदा बेटी की शर्त स्वीकार है। वो जैसा चाहेगी वैसा ही होगा. शादी के बाद औपचारिक रस्मों का निर्वाह करके कुछ दिन में  उनके लिए उचित व्यवस्था करके उन्हें बाकायदा समारोह आयोजित करके विदा कर दिया जाएगा. आप निश्चिन्त होकर आगे बढ़ें. लेकिन बिटिया से कहियेगा कि यह बात प्रभात के कान में नहीं पड़नी चाहिए वरना हो सकता है वो विरोध करने पर उतर आए. मैं उसे उचित समय पर शांति से सब समझा दूँगा.”

 सिन्हा जी को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि समधी जी बात को इतने हलके में लेंगे.  ख़ुशी-ख़ुशी पत्नी को यह बात बताई तो उसका मन भी हल्का हो गया और बेटी को यह बात बताकर आश्वस्त करके वे आगे की तैयारियों में लग गए.      

००००००००००००

प्रिय पाठक

आपने कहानी पढ़ी दिल से आभार।
यह कहानी पूर्णतः काल्पनिक होते हुए भी हमारे आसपास घटित प्रसंगों पर आधारित है। प्रस्तुत विचार मेरे अपने हैं, सहमत होना या न होना आपके विवेक पर निर्भर है।
आपकी अनमोल प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा😊👃

===================

-कल्पना रामानी

पुनः पधारिए

आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

-कल्पना रामानी

कथा-सम्मान

कथा-सम्मान
कहानी प्रधान पत्रिका कथाबिम्ब के इस अंक में प्रकाशित मेरी कहानी "कसाईखाना" को कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार से सम्मानित किया गया.चित्र पर क्लिक करके आप यह अंक पढ़ सकते हैं

कथाबिम्ब का जनवरी-मार्च अंक(पुरस्कार का विवरण)

कथाबिम्ब का जनवरी-मार्च अंक(पुरस्कार का विवरण)
इस अंक में पृष्ठ ५६ पर कमलेश्वर कथा सम्मान २०१६(मेरी कहानी कसाईखाना) का विवरण दिया हुआ है. चित्र पर क्लिक कीजिये