रचना चोरों की शामत

कुदरत के रंग

कुदरत के रंग

Friday 11 May 2018

उस रात का डर /कहानी

Related image
आशिमा बिटिया के विवाह के साथ ही अमिता के जीवन का एक बहुत बड़ा उद्देश्य तो पूर्ण हो गया लेकिन पहाड़ जैसे लंबे एकाकी जीवन की  शुरुवात भी। भविष्य की चिंता ने उसके मन का चैन चुरा लिया था और विचारों-कुविचारों ने अतिक्रमण करके अपना जाल बिछा दिया था। उसे अब जीने की कोई राह नहीं सूझ रही थी।

एकाकीपन और अतीत का आपस में बहुत गहरा रिश्ता होता है। एकाकीपन कभी अकेला रहना पसंद नहीं करता, झट से अपने मित्र अतीत को संदेश पहुँचा देता है, अतीत तो इंतज़ार में ही रहता है कि कब इंसान एकाकी हो और वो आकर उसके मनोमस्तिष्क पर अपना आसन जमा ले। यही अमिता के साथ भी होना ही था और हुआ। वह जैसे ही नींद को बुलाती, अतीत की किताब के पन्ने विचारों के झोंकों से फड़फड़ाने लगते और वह खुले-अधखुले उन पृष्ठों के कुछ धुँधले कुछ स्पष्ट शब्दों के भँवर-जाल में डूबती चली गई।

वह फागुनी पूनम की रात थी। होलिका दहन की तैयारियाँ पूरे गाँव में ज़ोरों पर थीं। हर मुहल्ले की हर गली में गाड़े हुए डंडों के इर्द गिर्द सूखे पत्ते, गोबर के उपले और पेड़-पौधों की टहनियों के कहीं छोटे तो कहीं बड़े से गुंबज नज़र आ रहे थे। शाम का झुटपुटा, शीत और ग्रीष्म ऋतुएँ आपस में गले मिल रही थीं। एक की विदाई और दूसरी का स्वागत होना था। एक ने अपनी फैली हुई चादर में शीत, हिम, और कोहरा समेटकर गठरी बाँध ली थी तो दूसरी अपनी शुष्क, गरम हवाओं की पोटली खोलने को आतुर थी।

गाँवों में उत्सव का माहौल कुछ अलग ही रंग में रंगा हुआ होता है। जोश और उत्साह हर चेहरे पर पूरे दम-खम के साथ परिलक्षित होने लगता है। चूँकि अमिता के पति वैभव पर्व प्रथाओं को पल्लवित करने में अग्रणी भूमिका निभाते थे, अतः गली-मुहल्ले के युवाओं को होलिका-दहन की सामग्री और चंदा जुटाने से लेकर रतजगे के लिए तैयार करना उसकी ज़िम्मेदारी होती थी।

महाराष्ट्र के एक शहर की निवासी अमिता का विवाह नजदीक ही एक गाँव में हुआ था। उसकी ससुराल में १२ सदस्यों का साझा परिवार था। संपन्नता के साथ ही पूर्ण सुख शांति रहती थी, दिन-भर वो अपनी जेठानी के साथ पर्व की परंपरा के अनुरूप पकवान बनाने और पूजा की तैयारियों में लगी रही, वैभव अपनी १० वर्षीय बेटी आशिमा के लिए रंग गुलाल और पिचकारी ले के साथ ही सुंदर सफ़ेद रंग का लहँगा-चोली ले आया था।

शाम गहराते ही घर के सभी सदस्य बाहर के दालान में होलिका-दहन के नज़ारे को नज़रों में उतारने के लिए एकत्रित हो गए।
गीत-संगीत, पकवानों का भोग और पूजन चलता रहा, फिर मुहूर्त देखकर देर रात होली में आग लगा दी गई। सब लोग आसपास ही बिखर गए। अचानक वैभव का एक मित्र जो हमेशा शुभ कार्यों में उसके साथ रहा करता था, अपनी मोटर साइकिल से तेज़ी से गली में आता दिखाई दिया। सब इधर उधर होकर जगह बनाने लगे लेकिन यह क्या! ज्यों ही मुसकुराते हुए वैभव ने उधर दृष्टि फेरी, मित्र का ध्यान चूक गया और गाड़ी ने सीधे उसे ज़ोर से टक्कर मार दी। वैभव उछलकर एक तरफ लुढ़क गया, मित्र भी बचाव के चक्कर में गाड़ी सहित गली में ही दूर तक रगड़ खाता हुआ चला गया। घटनास्थल पर कोहराम मच गया। आनन फानन दोनों को एंबुलेंस बुलाकर अस्पताल पहुँचाया गया, लेकिन अत्यधिक रक्त स्राव के कारण आधी रात तक दोनों मित्रों ने दम तोड़ दिया। घर में रोना पीटना शुरू हो गया, अमिता को तो जैसे लकवा मार गया था, सदमे से बेहोश होकर वहीं गिर पड़ी। पूनम की वह रात उसके लिए अमावस में बदल चुकी थी।
काफी समय बाद वो सामान्य स्थिति में आई तो उसके सामने अपने साथ ही बेटी का भविष्य भी एक सवाल बनकर खड़ा था। ससुराल में कोई कमी न थी लेकिन वो जीविका के लिए किसी पर निर्भर रहना नहीं चाहती थी अतः बहुत सोच विचार के बाद उसने माँ-पिता के पास शहर जाकर रहने का निर्णय लिया। उसकी कच्ची उम्र को देखते हुए किसी ने उसका विरोध नहीं किया। मायके का घर बड़ा था वहाँ बड़े भाई ने उसके लिए एक हिस्सा खाली करके गृहस्थी के साधन जुटा दिये। वो पढ़ी लिखी तो थी ही, थोड़े से प्रयास के बाद ही उसकी एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षिका के पद पर नियुक्ति हो गई। बेटी का दाखिला भी उसने अच्छे स्कूल में करवा दिया। उसकी दूसरी शादी के भी अनेक प्रस्ताव आए लेकिन अमिता ने मातृत्व पर अपनी इच्छाओं को हावी न होने दिया।

इस तरह समय-चक्र चलता रहा, आशिमा ने ग्रेजुएशन पूरा करके जॉब के लिए आवेदन कर दिया था, शीघ्र ही उसकी नौकरी मुंबई की एक अच्छी कंपनी में लग गई। अमिता का ससुराल में भी आना-जाना लगा रहता था।  वहाँ अब जेठ-जिठानी का ही परिवार रह गया था। ननदों की शादियाँ हो चुकी थीं, उसके सास ससुर एक-एक करके इहलोक वासी हो चुके थे। वे अपनी आधी संपत्ति अमिता के नाम कर गए थे। अमिता आशिमा को मुंबई अकेली नहीं भेजना चाहती थी और न खुद ही उसके बिना रह सकती थी, अतः उसने वहीं शिफ्ट होने का मन बनाकर अपने हिस्से की संपत्ति से छोटा सा एक कमरे का फ्लैट खरीद लिया। माँ बेटी के लिए यह काफी था। आशिमा को लेने और छोड़ने के लिए कंपनी की गाड़ी आ जाती थी। अवकाश के दिनों में माँ बेटी एक साथ बाजार करके आती थीं।  इस तरह उसका एक नई दुनिया में प्रवेश हुआ।

यहाँ आए छह महीने बीत चुके थे, उसे अब आशिमा के विवाह की चिंता थी। लेकिन शीघ्र ही बेटी ने माँ को इस चिंता से यह कहकर मुक्ति दिला दी कि वो अपने ऑफिस के ही एक सहकर्मी आशीष से विवाह करना चाहती है, वे दोनों एक दूसरे को पसंद करते हैं। आशीष ने भी अपने माँ पिता को आशिमा के बारे में  बता दिया है और रविवार को वो अपने माँ-पिता के साथ यहाँ आकर सारी बातें तय कर लेंगे। इस प्रकार बेटी का रिश्ता तय हो गया, और शीघ्र ही उसका विवाह भी सम्पन्न हो गया।

मुंबई आने के साथ ही अमिता की नौकरी छूट गई थी और अब यहाँ महानगर में नई नौकरी की उम्मीद भी नहीं थी। कभी कभी बेटी-दामाद मिलने आ जाते, लेकिन खाली समय में खाली दीवारें उसे काटने को दौड़तीं, अतः उसने कर्तव्यों पर कुर्बान हो चुकी कलम को फिर से थाम लिया। बेटी ने माँ के अकेलेपन को भाँपकर उसे उसे कंप्यूटर सीखने के लिए प्रेरित किया और एक अच्छा सा लैपटाप दिला दिया। समय निकालकर वो माँ के पास आ जाती और उसे इन्टरनेट का प्रयोग सिखाती। अब अंतर्जाल ही अमिता का अकेलेपन का साथी था, लिखना और पढ़ना उसकी दिनचर्या का अंग बन गया। कुछ ही दिनों में आशिमा ने माँ को इन्टरनेट का प्रयोग भली भाँति सिखा दिया, फिर उसे फेसबुक पर जोड़ दिया। इस नई दुनिया से अमिता इतनी रोमांचित और उत्साहित हुई कि अब उसे अकेलेपन का बिलकुल भी आभास न होता। वो अपनी कविताओं को फेसबुक पर साझा करने लगी। शीघ्र ही लोग उसका लेखन पसंद करने लगे और लगातार उसके मित्र बनते गए। कंप्यूटर ऑन करते ही बातूनी खिड़की झट से खुल जाती फिर उसे चैन ही न लेने देती। अब उसकी रेंगती हुई ज़िंदगी ने घुटनों से घिसटना शुरू कर दिया फिर पाँव-पाँव चलते हुए दौड़ लगानी शुरू कर दी।

धीरे-धीरे उसे गोष्ठियों में आने के लिए आमंत्रित किया जाने लगा, लेकिन उसे कोई वाहन चलाना नहीं आता था और सीखने में अब रुचि भी नहीं रह गई थी, तो बेटी ने इस समस्या का भी समाधान तुरंत कर दिया। वो उसी सोसाइटी में रहते हुए जिस टैक्सी से माँ के साथ आती जाती थी, उसके ड्राइवर से परिचय करवाकर मोबाइल नंबर नाम पता सब डायरी में लिखवा दिया।

६५ वर्षीय ड्राइवर मोहनलाल वर्मा, जिसे आशिमा दादा कहा करती थी, एक निहायत नेक और संभ्रांत इंसान थे, सुबह से शाम तक वे टैक्सी चलाते फिर शाम को उनका बेटा पिता को घर भेजकर देर रात तक जुटा रहता। अमिता को अब गोष्ठियों में जाने में कोई परेशानी न होती। वह पहले ही वर्मा जी को समय बताकर टैक्सी आने जाने के लिए बुक कर लेती। अक्सर जाने का समय शाम का होता तो उनका बेटा ही उसे लेने और छोड़ने का कार्य करता। काल करते ही टैक्सी गेट पर उपस्थित हो जाती। वर्मा जी का अधेड़ उम्र का बेटा सभ्य और शालीन युवक था। अमिता जब तक गोष्ठी में रहती वो आसपास की सवारियाँ ही लेता क्योंकि वो किसी भी समय वापस चलने का मन बना लेती थी। काल करते ही वो कहीं भी होता, १० मिनिट में उपस्थित हो जाता था।    
           
फेसबुक से जुडने के बाद अमिता की पहचान को एक नया आकाश मिल गया। अब उसका बचा हुआ सारा समय लिखने के अलावा मित्रों से बातें करते हुए कट जाता। मित्रों का चुनाव फेसबुक पर वो बहुत सावधानी से करती थी। सबसे पहले अपनी रचनाओं पर उनकी उपस्थिति और टिप्पणियाँ देखती फिर अपनी सूची में शामिल करती। इस तरह मित्र-अर्जियों की सूची लंबी हो गई थी।

आज अमिता को किसी गोष्ठी में शामिल नहीं होना था अतः शाम को टहलने और भोजन से निवृत्त होकर जल्दी ही फेसबुक पर डट गई। किसी बंदे ने फेसबुक पर संदेश भेजकर मित्रता स्वीकार करने का आग्रह किया था। अमिता ने अपनी रचनाओं में उसका नाम ढूँढना शुरू किया तो देखा कि वो उसकी हर रचना पर टिप्पणी सहित उपस्थित था, जाने कैसे उसकी अर्जी अमिता की नज़र से चूक गई थी। उसने तुरंत अर्जी स्वीकृत कर दी। उसकी प्रोफाइल पर परिचय में नाम कुमार मयंक’, निवासी मुंबई और जन्म तिथि के अलावा कुछ नहीं था। स्वीकृति मिलते ही चैट की खिड़की अविलंब खुल गई और नमस्कार के साथ ही वार्ता शुरू हो गई-
“अमिता जी, आपकी कविताएँ शानदार होती हैं”
-सराहना के लिए बहुत धन्यवाद
“मैं अक्सर आपको गोष्ठियों में सुनता रहता हूँ”
-अच्छा! लेकिन आपसे कभी मुलाक़ात तो नहीं हुई
“जी बस मौके के इंतज़ार में था”
फिर तो नित्य बातों का सिलसिला चल निकला। अमिता का समय अब एक अच्छा मित्र और प्रशंसक मिल जाने से अच्छी तरह व्यतीत होने लगा। मनपटल पर अंकित शून्य का वृत्त क्रमशः छोटा होते होते एक बिन्दु में परिवर्तित हो गया था। उसको समझ में में नहीं आ रहा था कि वो क्यों इस तरह चुंबक की भाँति मयंक की ओर आकर्षित होती जा रही है। जन्म तिथि के अनुसार उसकी आयु ४५-५० के बीच की है, बाल बच्चेदार होगा, उससे दूरी बनाना ही बेहतर है, सोचकर उसने बातचीत का सिलसिला कुछ कम कर दिया। अचानक एक दिन चैट पर बातों-बातों में अमित बोला-
“अमिता जी, बुरा न मानें तो एक बात पूछूँ”
-कहिए
“पहले वादा कीजिये कि आप बुरा नहीं मानेंगी”
-नहीं बाबा, आप जैसे नेक मित्र की बातों का क्या बुरा मानना!
“मैं आपके बारे में विस्तार से जानना चाहता हूँ
अमिता मौन हो गई, कुछ देर उत्तर न पाकर मयंक ने कहा-
“कोई बात नहीं आप न बताना चाहें तो...”
-ऐसी बात नहीं है, मैं दरअसल यहाँ बेटी दामाद के साथ रहती हूँ। अमिता ने अकेले रहने की बात बताना उचित न समझकर कहा। पति की एक दुर्घटना में मृत्यु हो चुकी है। मेरी एक ही बेटी है। लेकिन आप यह क्यों जानना चाहते हैं?
“देखिये मैंने आपको हमेशा अकेले ही गोष्ठियों में आते जाते देखा है इसलिए पूछ लिया। अमिता जी, मैं आपको चाहने लगा हूँ। आपसे शादी करना चाहता हूँ। मेरी पत्नी की ८ साल पहले उसकी पहली डिलिवरी में ही बच्चे को जन्म देते समय मृत्यु हो गई, बच्चे को भी नहीं बचाया जा सका। मैं अपने माँ-पिता के साथ ही रहता हूँ। एक प्राइवेट कंपनी में सेवारत हूँ।”
 -लेकिन मैंने तो इस बारे में कभी सोचा ही नहीं
“क्या हम एक बार मिलकर बात कर सकते हैं?”
अमिता के मन में द्वंद्व छिड़ गया। उसकी अभी उम्र ही क्या थी और अकेले ज़िंदगी गुज़ारना भी कितना दुष्कर है? न चाहते हुए भी वो मयंक की ओर आकर्षित होती चली गई। फिर से सुनहरे भविष्य के सपने आँखों में तैरने लगे। लेकिन बिना सब जाने मिले इतना बड़ा निर्णय कैसे ले ले। बेटी दामाद क्या सोचेंगे? मयंक में उसे कोई बुराई नहीं दिखी। आखिर उसने मिलकर निर्णय करने का मन बना लिया। मयंक ने समुद्र-बीच पर पूर्णिमा के दिन मिलने का कार्यक्रम बनाया। यह फागुन का महीना था और इस दिन तो वह बाहर झाँकती भी न थी और न ही किसी से मिलती। पति के बाद उसने कभी होली नहीं खेली। इस रात का कहर वो कैसे भुला सकती थी। इस दिन वो अपने कटु अतीत की यादों के साथ कमरे में कैद हो जाती थी। एकदम बोली-
-नहीं, होली निकल जाए फिर किसी और दिन के लिए विचार करेंगे
“लेकिन मेरा तबादला हो चुका है अमिता, और होली के बाद मुझे यहाँ से जाना होगा, मैं इसीलिए तुमसे बात कर लेना चाहता हूँ”।
अमिता सारी बातें मयंक को नहीं बताना चाहती थी और न ही बेटी को अभी से इस बारे में, अतः मन को मजबूत करके सहमति दे दी।

उस दिन उसने यह सोचकर कि आने जाने में जाने कितना समय लग जाए, वर्मा जी को फोन करके टैक्सी शाम को अनिश्चित समय के लिए बुक कर ली। नियत समय पर वो समुद्र बीच पर मयंक के बताए प्वाइंट पर पहुँच गई। उसने मयंक को अपने पहुँचने की सूचना देने के लिए काल करना चाहा लेकिन उसका मोबाइल ऑफ होने का संकेत आ रहा था। उसने ड्राइवर को हिदायत दी कि टैक्सी पार्क करके वो आसपास ही रहे। खुद वहीं टहलने लगी कुछ देर में मयंक ने फोन पर बताया कि उसे ट्राफिक के कारण घर पहुँचने में देर हो गई है और वहाँ आने में एक घंटा और लग जाएगा। अमिता के मन में इस चाँदनी रात का डर बुरी तरह समाया हुआ था, वो तो रात घिरने से पहले वापस जाना तय करके आई थी लेकिन अब इंतज़ार करने के अलावा कोई चारा नहीं था। ड्राइवर भी टैक्सी पार्क करके चला गया था,  आखिर आधा घंटा और बीतने पर मयंक ने पहुँचने का संकेत किया और एक टैक्सी उसके पास ही आकर रुक गई। वह उत्सुकता से उस तरफ देखने लगी, लेकिन यह क्या?  टैक्सी से उसके बेटी-दामाद उतरते नज़र आए। अमिता को काटो तो खून नहीं। हक्की बक्की होकर ताकने लगी। फिर कुछ सँभलकर बोली-
“अरे, आप लोग इधर!” 
-हाँ माँ, हमें कुमार मयंक उर्फ आपके ड्राइवर मयंक वर्मा ने ही बुलाया है।
विस्मित सी अमिता ने देखा, ड्राइवर मुस्कुराते हुए वहीं चला आ रहा था। अमिता के ज़ेहन में बीते दिनों के सारे घटनाक्रम की कड़ियों ने जुड़कर एक जंजीर का आकार ले लिया था, तभी आशिमा कहती गई-
माँ, मयंक अंकल ने हमें कुछ दिन पहले ही सब कुछ बता दिया था कि आप दोनों एक दूसरे को चाहते हैं और उनको आपसे शादी करने के लिए हमारी इजाज़त चाहिए। मिलने के लिए इस आज का दिन मैंने ही तय किया था ताकि आपके मन से इस रात का डर हमेशा के लिए निकल जाए। मेरी प्यारी माँ! सृष्टि के नियम अटल हैं। जीवन-मृत्यु, सुख-दुख, मिलना-बिछड़ना सब पूर्व नियोजित है। हर रात के बाद सुबह अवश्य आती है और हर अमावस के बाद पूनम का आना भी तय है। आप दोनों को नया जीवन शुरू करने के लिए हमारी अनंत शुभकामनाएँ...कहते हुए आशिमा अपने बैग से गुलाल की डिबिया निकालकर बोली-

माँ, यह वही डिबिया है जो पिताजी ने उस होलिका-दहन के दिन मुझे आपको मलने के लिए दिलाई थी, आपको गीले रंगों से एलर्जी थी न... उसके बाद आपने कभी होली नहीं खेली और मैंने भी मन ही मन प्रण कर लिया था कि आपको गुलाल मले बिना कभी होली नहीं खेलूँगी। माँ, मेरी ससुराल में यह पहली होली है और मैं बरसों बाद आपको गुलाल मलने के बाद ही अपने पति के साथ होली खेलूँगी कहते हुए सबसे पहले आशिमा ने, फिर दामाद ने और अंत में मयंक ने बारी-बारी अमिता के गालों पर गुलाल मला, और...उसके लाज से लाल हुए चेहरे को गुलाल ने अपने आवरण में छिपा लिया।        

-कल्पना रामानी

No comments:

पुनः पधारिए

आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

-कल्पना रामानी

कथा-सम्मान

कथा-सम्मान
कहानी प्रधान पत्रिका कथाबिम्ब के इस अंक में प्रकाशित मेरी कहानी "कसाईखाना" को कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार से सम्मानित किया गया.चित्र पर क्लिक करके आप यह अंक पढ़ सकते हैं

कथाबिम्ब का जनवरी-मार्च अंक(पुरस्कार का विवरण)

कथाबिम्ब का जनवरी-मार्च अंक(पुरस्कार का विवरण)
इस अंक में पृष्ठ ५६ पर कमलेश्वर कथा सम्मान २०१६(मेरी कहानी कसाईखाना) का विवरण दिया हुआ है. चित्र पर क्लिक कीजिये