रचना चोरों की शामत

कुदरत के रंग

कुदरत के रंग

Saturday 4 March 2017

अलौकिक आनंद


“इस बार तो दादी आपको होली खेलनी ही पड़ेगी। आपने पिछली होली पर मुझसे प्रोमिस किया था न!”
“हाँ वो तो किया था, लेकिन बच्ची, मुझे रंगों से सख्त एलर्जी है, अगर त्वचा पर खुजली और जलन होने लगेगी तो क्या तुम्हें अच्छा लगेगा?”

वो भला उस मासूम को कैसे बताती कि उसने अपने जीवन में पति के शक्की स्वभाव के चलते उनके अलावा किसी मर्द को अपने गाल तो दूर, भाल पर भी गुलाल का टीका तक लगाने नहीं दिया। अब नए दौर के तौर-तरीके देख-देखकर कभी उनका मन होता भी तो पति को याद करके अपनी इच्छा को उभरने ही न देतीं। लेकिन जिया अब मानने वाली नहीं थी, तुरंत चुटकी बजाते हुए बोली- “बस इतनी सी बात! अरे दादी आपको आज मैं ऐसे तैयार करूँगी कि एलर्जी का बाप भी पास नहीं आ सकेगा”

आखिर बाल हठ के आगे जस्सी देवी ने हथियार डाल दिए। जिया ने उनको बालों सहित बदन के खुले अंगों पर ढेर सारा तेल लगाने का निर्देश दिया फिर अपने नन्हें हाथों से उनके बालों की पोनी बनाते हुए गठरी के रूप में समेटकर एक पतले डिजाइनर स्कार्फ में बाँध दिया। केसरिया किनारी वाली सफ़ेद साड़ी में तैयार होकर जस्सी देवी जिया के साथ लिफ्ट से नीचे आ गईं। बेटा-बहू भी अपनी मित्र मंडली में शामिल हो गए। दादी के घुटनों के दर्द के कारण जिया ने उनको वहीँ से एक कुर्सी लेकर एक कोने में हिफाज़त से बिठाकर अपने मित्रों को बुला लिया। सभी बच्चों ने दादी को सलीके से रंग लगाया। कुछ वरिष्ठ महिला पुरुष उनको मिलन समारोह में शामिल होने के लिए बुलाने आए तो जिया ने सबको दादी की एलर्जी के बारे में बता दिया। सब उनके भाल पर गुलाल का टीका लगाकर अपनी मस्ती में मस्त हो गए।

जस्सी देवी ने गौर किया कि एक तरफ स्नैक्स के स्टॉल, चाय, पानी, कोल्ड ड्रिंक्स आदि लगे हुए थे तो दूसरी तरफ ठंडाई घुट रही थी, मिठाइयाँ बन रही थीं। रंग और पानी के बड़े बड़े कुंड भर दिए गए थे। दोपहर तक खूब धमाल, नाच गाना संगीत चलता रहा। सब लोग सद्भावना और सौहार्द्र-पूर्ण रंग गुलाल खेलते रहे। बेटा-बहू भी बिटिया को दादी के आसपास ही होली खेलते देखकर बेफिक्र थे। जस्सी देवी जीवन में पहली बार इस माहौल से रूबरू हुई थी। गाँव के अपनेपन से यह मिलन-सभा कहीं से भी कमतर न थी। बीच-बीच में जिया दादी के लिए कुछ न कुछ चटपटी चीजें लाती रही।

अब जस्सी देवी को घर जाकर आराम करने का मन हुआ। लेकिन भीड़ में जिया का कुछ पता नहीं था। अब इतनी भीड़ में बच्ची को कैसे और कहाँ ढूँढें। जस्सी देवी पछताने लगीं कि वो नाहक नीचे आई। इतने में जस्सी देवी ने देखा कि जिया एक हाथ में प्रसाद और मिठाई की प्लेट लिए भीड़ में जगह बनाती हुई कतार तोड़कर इधर ही आ रही थी। जस्सी देवी घबराकर बोलीं - “तुम्हें इतनी भीड़ में जाने की क्या ज़रूरत थी जिया!”

“दादी, मैं आपके लिए प्रसाद लेने गई थी, आप इसे खाइये मैं जल्दी से ठंडाई ले आती हूँ।” और जिया उछलती कूदती ठंडाई वाले स्टॉल पर चली गई, यहाँ भीड़ कुछ कम थी वो थोड़ी ही देर में दादी के लिए ठंडाई का गिलास ले आई। जस्सी देवी उसे प्यार से गले लगाकर बोलीं-
“मेरी गुड़िया, इतनी भीड़ में तुम गिर जातीं तो क्या होता!”
“अरे, कुछ नहीं होता दादी, कोई न कोई अंकल मुझे उठाकर ले आते... यहाँ सब लोग मुझे बहुत प्यार करते हैं।”

जस्सी देवी उसके भोलेपन पर निहाल हो उठीं, उन्होंने होली का यह रंग तो कभी नहीं देखा था। सोचा, जिया सच ही तो कह रही है, कितने अच्छे लोग हैं यहाँ सब। आज तक न जाने क्यों वो इस अलौकिक आनंद से वंचित थीं।


-कल्पना रामानी

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कथा-सम्मान

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कथाबिम्ब का जनवरी-मार्च अंक(पुरस्कार का विवरण)

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