“सुनो नीलू डियर, आज
शाम को माँ-पिताजी से मिलने चलना है, मैं जल्दी आऊँगा, तुम
तैयार रहना...”
कहते हुए आशीष दफ्तर के लिए निकल गया।
पति के जाते ही नीलिमा प्रसन्न-मन घर
के काम-काज जल्दी-जल्दी निपटाने लग गई। उसके कालेज की दो दिन छुट्टी थी। सोचा कि
वृद्धाश्रम से वापस आते समय मायके भी होती आएगी। मायका है तो इसी शहर में लेकिन
ससुर जी की बीमारी के कारण जाने का समय ही नहीं निकाल पाती थी। बड़ी मुश्किल से
उनसे छुटकारा मिला है। छोटू के स्कूल से
आते ही वो उसे साथ लेकर मायके वालों के लिए उपहार ख़रीदने बाजार चल दी। ठण्ड के दिन थे तो माँ के लिए एक सुन्दर सा शाल
ख़रीदा। पति के घर आते ही वे निकल पड़े। चलते चलते उसने मायके होते हुए आने की बात
पति के कानों में डाल दी थी तो भोजन भी वहीं होना ही था अतः आराम से घर वापसी
होगी।
कार सरपट भागी जा रही थी। चूँकि वृद्धाश्रम शहर के बाहरी हिस्से में था तो
वहाँ पहुँचने में एक घंटा लग जाता है। नीलिमा आज बहुत प्रसन्न थी। ठण्ड के दिन, शाम
का समय, साथ ही आसमान में बादल और कोहरा वातावरण को
खुशनुमा बना रहे थे। रास्ते में हरे भरे उद्यान दिखते तो उसका मन फूलों सा खिल
जाता, झील के पुल से गुज़रते हुए, लहरों
को देखकर उसका तन मन भीगने लगता,
पहाड़ियों की कतार देखकर तो वो कल्पनाओं
में उड़कर वहाँ पहुँच गई और बादलों के साथ उड़ने लगी। उड़ते उड़ते वो १५ दिन पहले के
उन पलों में जा पहुँची जब उसकी सहेली सुधा ने उसकी ज़िन्दगी की किताब में खुशियों
का अध्याय जोड़ दिया था।
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सुधा और वो एक ही कालेज में व्याख्याता
के पद पर थीं। लेकिन उसकी लगातार अनुपस्थिति से वो सोच में पड़ गई थी कि न जाने
क्या समस्या है...उसने फोन पर पूछा था तो नीलिमा ने अपने ससुर जी की तबियत खराब
होना बताया था पर इतने से सुधा को संतोष नहीं हुआ था और वो उसका हालचाल जानने उसके
घर पहुँच गई थी। नीलिमा का बुझा-बुझा चेहरा देखकर उसके कारण पूछने पर उसने बताया
था-
“वो क्या है न सुधा, सब
कुछ अच्छा चल रहा था, मैं
केवल नौकरी पर ही ध्यान देती थी। ससुर जी बाहर से सामान, सब्जी, दूध
वगैरह लाने का कार्य करते थे और सासुमाँ छोटू को सँभालने और घर की देखरेख के अलावा
महरी से घर के सारे काम अपनी देखरेख में करवा लेती थीं। मुझे कोई चिंता ही नहीं
रहती थी। लेकिन एक दिन बारिश में बाजार से सौदा लाते समय ससुर जी पैर फिसलने से
सड़क पर गिर गए और उन्हें घुटने में गहरी चोट आ गई। उस दिन के बाद लगभग ६ महीने हो
गए, पर सारे इलाज होते हुए भी वे ठीक नहीं हो सके, बल्कि
उन्हें अर्थाराइटिस ने भी जकड़ लिया है। सासु-माँ पूरा समय उनकी देखरेख में लगी
रहती हैं। घर सँभालने में बहुत परेशानी होने लगी है। मेरे सिर पर दोहरी जवाबदारियाँ आ गई हैं। छुट्टियाँ भी आखिर
कितनी ली जाएँ...? आशीष से सहयोग के लिए कहती हूँ तो वे नौकरी छोड़
देने की बात करने लगते हैं। लेकिन मुझे यह मंज़ूर नहीं। इसी कारण हमारे बीच मनमुटाव
बढ़ गया है। तुम्हीं बताओ सुधा, मैंने इतनी पढ़ाई घर बैठने के लिए तो नहीं की न, आखिर
मेरे भी कुछ सपने हैं... क्या करूँ कोई रास्ता नहीं सूझ रहा!”
इतने में उसे परदे से बाहर सासुमाँ की झलक दिखाई
दी थी, शायद वे ससुरजी के किसी काम से उठकर कमरे से
बाहर आई हैं...तभी अचानक नीलिमा के मन में एक विचार कौंधा था और उसी क्षण मात्र
में उसके मनोमस्तिष्क पर स्वार्थ ने अपना अधिकार जमा लिया था वो। माँ-पिता से मिले
हुए सारे संस्कार, सास-ससुर का सहज अपनापन, स्नेह
त्याग, सब ताक पर रखकर कुछ ऊँची आवाज़ में, ताकि
सासुजी सुन सकें, बातचीत को आगे बढाते हुए बोली थी-
“वैसे तो सुधा, आजकल
नौकरीपेशा दम्पतियों के समयाभाव को देखते हुए वृद्धाश्रमों का विकास तेज़ी से हो
रहा है लेकिन लोग संज्ञान में लें तब न... बेटे तो पतली गली से बच निकलते हैं, और
लात बहुओं के सीने पर ही पड़ती है। जबकि होना तो यह चाहिए कि अक्षम होने पर बुजुर्ग
स्वयं आगे रहकर अपने जैसों के बीच रहने का मार्ग चुनें ताकि बेटे-बहुओं पर
अतिरिक्त भार न पड़े। खैर...!तुम परेशान न हो डियर, जो
होना है वो होकर रहेगा, मैं
चाय बनाती हूँ।”
-रहने दो नीलू, मैं
बस तुम्हारा हालचाल जानने ही आई थी,
मुझे थोड़ा बाहर का काम है, मैं
चलती हूँ, अपना हालचाल बताती रहना...।
नीलिमा का तीर निशाने पर बैठा था.
दूसरे दिन ही आशीष को कमरे में बुलाकर ससुर जी ने वृद्धाश्रम जाने की बात कही थी।
आशीष भी प्रतिदिन की चिकचिक से परेशान हो गया था तो थोड़ी ना-नुकुर के बाद इसके लिए तैयार हो गया था।
आज़ाद होते ही वो इतनी खुश हुई थी जिसकी
कोई सीमा नहीं थी, पहली कक्षा में पढ़ने वाले छोटू की देखरेख के
लिए आया तो थी ही, अतः अब कोई चिंता नहीं थी। सास-ससुर के सामने
कितने लिहाज से रहना पड़ता था, उफ़...! न मन का पहनना ओढ़ना, न
कभी ऊँची आवाज़ में म्युज़िक सुनना,
जिसका उसे बचपन से शौक था।
अब तो जब भी घर में अकेली होती बेफिक्र होकर गुनगुनाने और ऊँची आवाज़ में
म्युज़िक सिस्टम पर अपने मनप्रिय गीत लगाकर झूमने और गाने लगती थी-
तंद्रा टूटते ही उसने एक नज़र छोटू पर
डाली, उसे नींद आ गई थी...फिर मोबाईल पर अपना मनप्रिय
गीत लगाया और झूमने लगी-
पंछी बनूँ, उड़ती
फिरूँ मस्त गगन में...
आज मैं आज़ाद हूँ दुनिया के चमन में...
अँधेरा घिरने लगा था, वृद्धाश्रम पहुँचे तो पता चला सास-ससुर कॉमन
हाल में शाम का कीर्तन सुनने गए हैं। वे उनके कमरे के बाहर ही रखी हुई बेंच पर
बैठकर इंतजार करने लगे। इतने में नीलिमा को बाहरी गेट पर एक कार रुकती हुई दिखी
लेकिन जब उसने भाई को उतरकर कार से माँ को सहारा देकर उतारते देखा तो आश्चर्य चकित रह गई पर अगले ही पल उसका मन खुशी
से भर गया।
सोचा- शायद आशीष ने ही उन्हें बुलाया
होगा और वे भी उसके सास-ससुर से मिलने आए होंगे। एक सप्ताह ही तो उनको यहाँ आए हुआ
है और वे भी पहली बार ही उनसे मिलने आए हैं। नीलिमा लगभग दौड़कर माँ के गले लग गई
और सहारा देकर बेंच तक लाकर बिठा दिया। छोटू भी नानी से चिपककर वहीँ बैठ गया और उधर
आशीष उसके भाई के साथ बातचीत में व्यस्त हो गया।
“अरे माँ! कैसी हैं आप? बहुत
दिन हुए हमें मिले न...हम स्वयं यहाँ से वापसी में आप सबसे मिलने आ रहे थे, अब
आप आई हैं तो हम आपके साथ ही चले चलेंगे, सबसे मिलना हो जाएगा। वैसे तो घर से निकलना ही नहीं हो पाता था, जॉब
के साथ ही घर, बच्चे और सास-ससुर की देखरेख ने मेरी कमर ही
तोड़ दी थी, अब जाकर कुछ राहत मिली है। देखो न मैंने सबके
लिए उपहार भी ख़रीदे हैं।”
कहते हुए नीलिमा ने बैग खोला और माँ के
लिए ख़रीदा हुआ शाल निकालकर उनके कंधे पर डालकर
बोली-
“यह आपके लिए ही लिया है माँ, कितनी
सुन्दर लग रही हो माँ इस शाल में...!”
लेकिन माँ का कोई उत्तर न पाकर उसने
गौर से उनकी ओर देखा तो वे कुछ गंभीर सी दिखीं।
“आप कुछ परेशान दिख रही हैं माँ! क्या बात है?”
तुम्हारे भाई अब बंटवारा करके अलग हो
चुके हैं नीलू... वो...
“अरे!
यह कब हुआ माँ? मुझे तो मालूम ही नहीं...अब आप किसके साथ
रहेंगी? हाँ...बड़े
के साथ ही रहेंगी न! वही तो आपका सबसे अधिक ध्यान रखता है। कभी किसी चीज़ की कमी
नहीं होने देता...फिर आप इतनी परेशान क्यों हैं? अब तो आप जब मन चाहे मेरे पास भी आकर रह सकती
हैं।”
माँ की बात बीच में ही काटकर नीलिमा
अपनी ही धुन में बोलती चली जा रही थी, फिर अचानक एक नज़र माँ की तरफ गौर से
देखा तो कुछ पूछने से पहले ही उनकी आँखों की कोरें भरी हुईं देखकर हैरान रह गई।
-वो बात नहीं है बेटी, बात
यह है कि जिस दिन तुम्हारे सास-ससुर के वृद्धाश्रम जाने की बात बेटे-बहुओं को पता
चली, उसी दिन से उस घर से मेरी विदाई की कवायद शुरू
हो गई। तुम नहीं जानतीं, बहुओं में आए
दिन खींचातानी और चखचख तो चलती ही रहती थी, पर
अलग होने पर मुझे कौन रखेगा इसी बात पर आकर बात टल जाती थी। वृद्धाश्रम के लिए
पहले तो मेरे बचाव में अकेलापन बहुत बड़ा हथियार था, लेकिन तुमने उनकी मुश्किल आसान कर दी। अब मुझे
अपने समधियों के साथ यहीं रहना होगा।
कहते हुए माँ ने कार से उसका सामान
उतरवाकर आते हुए बेटे और दामाद की तरफ इशारा कर दिया।
नीलिमा के तो जैसे होश ही उड़ गए। आँखों
के आगे अँधेरा छा गया। पासा पलट चुका था, उसका अंतर्मन जीत का जश्न भूलकर इस
अप्रत्याशित हार पर हाहकार कर उठा। अपने ही बुने जाल में वो स्वयं फँस गई थी...मगर
जली हुई रस्सी में ऐंठन अभी बाकी थी। गुस्से से आग-बबूला होकर चीखते हुए बोली -
“ऐसा कैसे हो सकता है माँ? दो
बेटे, दो बहुएँ, उनके
दो-दो बच्चे...इतना बड़ा भरा पूरा परिवार...सब तो मेरी इकलौती प्यारी माँ को सर
आँखों पर रखते थे और बहुएँ तो जॉब भी नहीं करतीं न...!”
-कल तक ऐसा ही था नीलू, मगर
खरबूजे को देखकर ही खरबूजा रंग बदलता है न...
“पर मेरी सहमति के बिना उन सबकी यह हिम्मत कैसे
हुई? आखिर मैं सबसे बड़ी हूँ...तय तो यही था न कि
आपके होते हुए कभी घर का बँटवारा नहीं होगा...और शादी से पहले भाभियों के लिए भी
मैंने यही शर्त रखी थी, फिर
माँ, आपने भी कोई विरोध क्यों नहीं किया? मैं अभी बड़े से इसका उत्तर माँगूंगी...”
-कैसा विरोध, और
किस बात का उत्तर चाहिए तुम्हें बेटी? जबकि तुमने...हाँ नीलू! तुमने खुद ही
मुझे यह उपहार सौंपा है।
कहते हुए माँ ने कंधे पर डली हुई शाल
के छोर से आँखों की गीली कोरें पोंछ लीं।
- कल्पना रामानी
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