रचना चोरों की शामत

कुदरत के रंग

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Saturday 19 September 2015

विचित्र विरासत


  
आज सासु माँ की तेरहवीं है। मेहमानों के बीच उदासी ओढ़कर नकली आँसू बहाते हुए बहू संजना अब उकता गई थी। एक ननद को छोडकर बाकी सभी मेहमान जा चुके थे। अब उसे इंतज़ार था सास की विरासत में छोड़ी हुई चीज़ें देखने का, उनकी अलमारी की चाबी की जानकारी केवल ननद मीना को ही थी। उसने सबके सामने अलमारी खोली। सामने ही लॉकर की चाबी और एक कागज़ का पुर्जा पड़ा था। मीना ने माँ का लिखा हुआ संदेश पढ़ा, माँ ने अपने जेवर इकलौती पोती और बेटी के नाम किए थे, कैश रुपयों पर बेटे का अधिकार था,  उनके सभी नए पुराने कपड़े गरीब महिलाओं में बाँट दिये जाने का ज़िक्र था। एक सीलबंद पैकेट था जिसके ऊपर एक पिन किए हुए कागज़ पर लिखा हुआ था- “यह पैकेट बहू के लिए है लेकिन वो इसे अपने बेटे, मेरे पोते अनुज की शादी के एक वर्ष बाद ही खोल सकेगी। मेरी अंतिम इच्छा के अनुसार तब तक यह बैंक के लॉकर में रख दिया जाए”।  
बेटे ने वह पैकेट बैंक के लॉकर में रखवा दिया। दिन गुजरते गए, छह महीने बाद अनुज की शादी हो गई, सगाई पहले ही हो चुकी थी। बहू आराधना के घर में आते ही संजना ने कुछ राहत महसूस की। अब वो अपना ध्यान अपने पति और अपने स्वास्थ्य पर ही देना चाहती थी। वह बात-बात पर बहू को निर्देश देती लेकिन आराधना उसके कहे को एक कान से सुनकर दूसरे से झटक देती। सास की कही हर बात का उलटा जवाब देती। धीरे-धीरे  उसने सास को रसोई से बेदखल कर दिया।
समय गुज़रता रहा और संजना हालात से समझौता करती गई। अब पुराना संयुक्त परिवारों का ज़माना नहीं रहा, जब सास बहू पर हावी हुआ करती थी। आज की बहुएँ सास को अच्छा होने का मौका ही नहीं देतीं बल्कि ऐसा माहौल पैदा कर देती हैं जिससे उसे बुरा साबित किया जा सके और मौका मिलते ही पति को लेकर उड़ जाती हैं। गई सदी के इतिहास के वे पन्ने जब सास बहू पर हावी हुआ करती थी, आज की बहुओं ने फाड़कर फेंक ही दिये हैं, सास कितनी भी पढ़ी लिखी और समझदार हो लेकिन बहू स्वतंत्र ही रहना चाहती है और इसके लिए जाल बुनती ही रहती है, और सास का नाम ही परिवार की सूची से मिटा देना चाहती है। उसने भी तो यही किया था न, अपनी सास सुमित्रा के साथ! वो पढ़ी लिखी सुलझे विचारों की महिला थी और अपनी पुराने विचारों की सास से मिले हुए कष्टों को भूलकर संजना को हर तरह की सुविधाएँ, सहयोग और प्यार देकर सास के नाम पर लगे मनहूस धब्बे को हमेशा के लिए मिटाकर नया इतिहास रचना चाहती थी,  लेकिन संजना क्षण भर भी खुशी न दे सकी थी उसे। आज उसे सास की बहुत याद आ रही थी, तभी सामने लगे कैलेंडर पर उसकी निगाह पड़ गई। दो दिन बाद ही  बेटे बहू की शादी की पहली वर्षगाँठ है। सास की वसीयत के अनुसार एक साल पूरा हो चुका था। तीसरे दिन ही वो बैंक जाकर लॉकर से अपने नाम का पैकेट निकलवा कर ले आई। मन में उथल पुथल मची हुई थी कि आखिर उसे सास ने क्या दिया होगा।

बेटे बहू के इधर-उधर होते ही उसने वो पैकेट खोल दिया। अंदर सास के तह किए हुए लगभग एक दर्जन पुराने रूमाल थे और एक दूसरा पैक पैकेट भी था। देखकर अचानक उसकी आँखें एक सवाल लिए सिकुड़ गईं। साथ ही पिन किए हुए कागज़ पर लिखे शब्द पढ़ने लगी-“बहू ये वे रूमाल हैं जिनसे मैं बेटे का विवाह होने के एक साल बाद से मृत्यु-पर्यंत आँसू पोंछती रही”। पढ़कर उसकी आँखों से अविरल  आँसू बहने लगे। रोते-रोते उसने दूसरा पैकेट खोला, उसमें उतने ही बिलकुल नए रुमाल थे और वैसा ही  कागज़ का टुकड़ा पिन किया हुआ था- उसे कहीं से सास की आवाज़ सुनाई दी- “बहू, रो रही हो न, ये रूमाल तुम्हें अपनी अंतिम साँस तक आँसू पोंछने के काम आएँगे”। और उसने एक रूमाल उठाकर अपने आँसू पोंछ लिए।   

8 comments:

Unknown said...

बहुत ही बेहतरीन कहानी आदरणीय जी.....

Unknown said...

अच्‍छी है

Unknown said...

अच्‍छी है

mahesh said...

जमाना बदल गया है !
आज की बहु कल सास बनेगी - पर
देर होने के बाद - समझना - बेमतलब

Sam Agrawal said...

Atyant sanvednapoorn kahaani ,jo vastviktaa se bahut sameep hai.-Sam Agrawal

अनुराग सिंह "ऋषी" said...

Behad marmsparshi laghukatha

मेरा मन पंछी सा said...

bahut hi marmsprshi rachana.

sayed mohd idrees said...

Bohut sundar

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-कल्पना रामानी

कथा-सम्मान

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कहानी प्रधान पत्रिका कथाबिम्ब के इस अंक में प्रकाशित मेरी कहानी "कसाईखाना" को कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार से सम्मानित किया गया.चित्र पर क्लिक करके आप यह अंक पढ़ सकते हैं

कथाबिम्ब का जनवरी-मार्च अंक(पुरस्कार का विवरण)

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