
-माँ आज फिर?
“अरे सोनू! तुम तो खेलने गए थे न”? तकिये को टाँके लगाती हुई विमला ने पूछा
-हाँ माँ, मेरा मित्र आज नहीं आया तो मैं वापस आ गया लेकिन तुम मेरा तकिया जब तब खोलती क्यों रहती हो?
“बेटा कुछ ही दिनों में यह कठोर होने लगता है, इसलिए...”
-लेकिन माँ, यह कब तक करती रहोगी?
“जब तक तुम बड़े नहीं हो जाते बेटे, इसमें पड़ी हुई गुठलियाँ सीधी करते रहने से तुम्हें यह नरम लगेगा। मुझे इससे कोई तकलीफ नहीं होती बल्कि आत्मिक संतोष ही मिलता है। चलो भोजन कर लो”।
कहते हुए विमला ने तकिया एक तरफ रख दिया।
आज सोनू का ११ वीं कक्षा का आखिरी पेपर था, फिर स्कूल की छुट्टियाँ लग जाएँगी और उसके बाद परीक्षा के परिणाम का इंतज़ार ही करना है। उसे पूरा विश्वास था कि इस बार भी वो हमेशा की तरह प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होगा। उसकी योग्यता और रुचि को देखते हुए वहाँ के प्राचार्य ने उसे आगे अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए उसी स्कूल में शिक्षक के रूप में अपनी सेवाएँ देने का प्रस्ताव रखा था। सुनकर उसे तो जैसे मुँह माँगी मुराद मिल गई थी, तंग हाली में न जाने कैसे माँ ने उसे यहाँ तक पढ़ाया।
सोनू माँ को अपनी ६ वर्ष की उम्र से ही हर
१५-२० दिन में अपने तकिये को खोलते और फिर सीते हुए देखता आया है। वो उस कोलोनी के
एक दर्जी के यहाँ काम करती थी। सिलाई के बाद बची हुई कतरन घर ले आती और उसका तकिया
फिर फिर भरकर नरम कर देती। सोनू अपने गरीब माँ-पिता का इकलौता बेटा है। पिता ने
कभी कोई काम टिककर नहीं किया। दो चार दिन मज़दूरी कर भी लेता तो सारा रुपया दारू
में ही उड़ा देता, माँ
ही घर का खर्च किसी तरह चलाती आई है। सोनू की पढ़ाई में रुचि देखकर विमला ने उसे
सरकारी स्कूल में भर्ती करवा दिया और उसे कभी फीस, किताबें या यूनिफॉर्म की कमी न
होने दी।
हर पहली तारीख को पगार मिलते ही माँ बनिए का
उधार चुकाकर अगले महीने का राशन ले आती। उस दिन पिता घर की चौखट पर डटे रहते और
माँ के आते ही बचा पैसा किसी शिकारी बाज की तरह झपट लेते। विरोध करने पर घर से
निकाल देने की धमकी देते। माँ मार खाती रहती मगर उस घर की चौखट नहीं छोड़ी। सोनू
चुपचाप सब देखता रहता था,
वो
कभी नहीं जान सका कि उसकी पढ़ाई का खर्च कहाँ से आता है। पिता को तो अपने दारू के
अलावा किसी बात से मतलब ही न था।
एक दिन वो माँ से अकेले में लिपटकर बोला-
“माँ, पिता तुम्हें पैसा न होने पर भी हर
दिन पीटते और घर छोड़ने के लिए कहते हैं न...फिर तुम यह घर छोड़ क्यों नहीं देती? हम दोनों दूसरा घर लेकर रहेंगे”।
“पहले
तुम बड़े हो जाओ बेटे, अभी
इन बातों को तुम नहीं समझोगे,
यह
दुनिया बड़ी ख़राब है, यहाँ
से निकलकर हम अकेले सुरक्षित नहीं रह सकते”। कहते हुए विमला ने अपने आँसू
पोंछते हुए सोनू का गाल चूम लिया।
समय गुज़रता रहा और सोनू बड़ा होता गया। किशोरावस्था तक आते-आते उसका तकिया
भी कुछ बड़ा और मोटा होता गया
लेकिन माँ को पिता द्वारा पीटा जाना और माँ का
तकिये को खोलना-सीना बंद नहीं हुआ। अब वो काफी बातें बिना माँ से पूछे बिना समझने
लगा था। उसे
पिता द्वारा माँ की पिटाई असहनीय होने लगी थी।
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रास्ते भर वो खुद को शिक्षक के रूप में देखता और सोचता हुआ चलता रहा। बीच में पड़ने वाली एक अच्छी सी कॉलोनी में छोटा सा मकान भी किराए पर तय कर लिया। आज उसने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अब माँ को जल्लाद पिता से दूर ले जाएगा और नौकरी के झंझट से भी मुक्त कर देगा। उसे सुख चैन के तकिये पर सुलाएगा...
सोचते-सोचते घर आ गया, दरवाजा उड़का हुआ था लेकिन अंदर से पिता की ऊँची आवाज़ और माँ का रोना-गिड़गिड़ाना सुनकर वो वहीं रुक गया और दरार से झाँकने लगा। अंदर उसके उधड़े हुए तकिये को मजबूती से पकड़े हुए पिता चिल्ला रहे थे-
“तो तुम आज तक मेरी आँखों में धूल झोंकती रही, अपने पूत के लिए रुपयों से तकिया भरती रही और मुझे पैसे-पैसे के लिए मोहताज बना दिया, अब इस तकिये पर मैं सोया करूँगा। आखिर पढ़-लिखकर तुम्हारे पूत ने कौनसे झंडे गाड़ दिये हैं?”।
सोनू सारी बातें पलक झपकते ही समझ गया। माँ रोते रोते तकिया छीनने का प्रयास कर रही थी, अचानक पिता को उसे मारने के लिए हाथ उठाते देखकर सोनू ने दरवाजे को ज़ोर का धक्का दिया और माँ-पिता के बीच में आकर पिता का वार अपने ऊपर झेल लिया फिर माँ का हाथ पकड़कर ऊँची आवाज़ में बोला-
-चलो माँ, मेरे साथ… मुझे अब इस तकिये की कोई आवश्यकता नहीं है।
-कल्पना रामानी
4 comments:
बहुत मर्मस्पर्शी लघु कथा...
बहुत ही सुन्दर कहानी...
बहुत सार्थक कहानी
कमाल की लेखनी, नमन
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