सुमन ने जब से बिस्तर पकड़ा, उसकी जैसे दुनिया ही बदल गई। एक तो वृद्धावस्था, ऊपर से दमे की लाइलाज बीमारी। दिन रात खाँसती रहती। घर में बच्चे और बेटा चलते फिरते नज़र डाल दिया करते, बहू को उतना समय भी न था, आखिर घर की सारी जवाबदारी जो उसके ऊपर आ गई थी।
रुपए-पैसे की कोई कमी न थी लेकिन उसके साथ दो बातें
करने वाला कोई न था। माँ की परेशानी को
देखते हुए बेटे विनय ने उनकी सेवा के लिए एक सेविका रमिया को लगा दिया।
वो सुबह शाम दो-दो घंटे आकर सुमन के सारे कार्य कर
दिया करती और फुर्सत पाकर बातें भी कर लेती। कुछ दिन तो सब ठीक ठाक चला फिर रमिया
का व्यवहार बदलने लगा। बीच-बीच में उसे बहू बुला लेती तो दुविधा में पड़कर वो उसके
काम जल्दी से जैसे-तैसे निपटाकर बहू के पास चली जाती और उसके कार्य करने लगती, उसके बुलाए जाने पर सुनी-अनसुनी कर देती। शायद उसे काम छूट जाने का डर था। न कमरे की ठीक से सफाई हो रही थी न ही उसकी
सेवा...कभी जग में पानी न होता तो कभी बिस्तर नहीं झटका जाता. कभी नाश्ता समय पर
नहीं मिलता तो कभी कपड़े फैले हुए पड़े रहते.
सुमन सोचा करती, जब तक गतिशील थी, तब तक उसका वर्चस्व भी कायम था “जिसके हाथ डोई, पूछे उसे हर कोई”। अब तो चुपचाप सहन करना ही अब उसकी नियति थी। वो बेटे को शिकायत करके परेशान नहीं करना चाहती थी, उसके पूछने पर सब ठीक होने की बात कह देती लेकिन विनय की गहरी नज़रें आते जाते माँ की परेशानी ताड़ लेतीं.
एक महीना पूरा होने को आया तो विनय ने पत्नी से कहा-
सुमन सोचा करती, जब तक गतिशील थी, तब तक उसका वर्चस्व भी कायम था “जिसके हाथ डोई, पूछे उसे हर कोई”। अब तो चुपचाप सहन करना ही अब उसकी नियति थी। वो बेटे को शिकायत करके परेशान नहीं करना चाहती थी, उसके पूछने पर सब ठीक होने की बात कह देती लेकिन विनय की गहरी नज़रें आते जाते माँ की परेशानी ताड़ लेतीं.
एक महीना पूरा होने को आया तो विनय ने पत्नी से कहा-
“अनीता, मैं देख रहा हूँ
कि माँ की सेवा ठीक से नहीं हो रही, हम किसी दूसरी सेविका को
रख लें क्या?”
अनीता ठुमक कर बोली-
“सब ठीक तो है, माँ जी को रमिया
का मेरे कार्यों में हाथ बँटाना नहीं सुहाता। फिर ऐसी भी न मिले तो...?”
विनय सोच में पड़ गया, आखिर
पुरुषों का भी दो नावों पर पैर होता है। गृहस्थी में संतुलन बनाए रखने के लिए उनकी यही कोशिश रहती है कि लहरों में उफान न
आने पाए वरना जीवन भर किनारा ढूँढते रहना पड़ता है। वो गरीबी के मनोविज्ञान से
अच्छी तरह परिचित था अतः उसने युक्ति से काम लेते हुए माँ के पास जाकर उसे पैसे
देते हुए कहा-
माँ कल रमिया को एक महीना पूरा हो जाएगा, तुम उसकी पगार समय पर दे देना।
सुमन आश्चर्य से बेटे को देखते हुए बोली-
“घर के सारे हिसाब बहू देखती है तो मुझे इस झंझट
में क्यों घसीट रहे हो बेटे?”
-पर माँ वो भी तो यह सब करते करते थक जाती होगी, इसमें कोई मेहनत तो है नहीं...कहते हुए अनीता पर नज़र डालकर विनय चला गया।
दूसरे दिन सुबह रमिया के आते ही सुमन ने उसे पगार
देते हुए कमरे की ठीक से सफाई करने को कहा।
पैसे पाकर रमिया के चेहरे का रंग बदलने लगा, उसने उत्साह से सुमन के सारे कार्य किए, उसकी दुविधा
खत्म हो चुकी थी और अब उसे काम छूटने का कोई डर न था।
सुमन बेटे की युक्ति ने सुमन को तनावमुक्त कर दिया था।
(चित्र गूगल से साभार)
-कल्पना रामानी
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