रचना चोरों की शामत

कुदरत के रंग

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Thursday 16 October 2014

तुलसी का चौंरा


वो लगातार पाँच दिनों से शोभना के व्यवहार पर गौर कर रहा था। उससे हर पल बतियाने वाली, आते जाते निहारने, नज़रों से दुलराने वाली, उससे बात किए बिना बेचैनी से दिन बिताने वाली शोभना कैसे इतनी बदल गई है, यह उसकी समझ से परे था। प्रतिदिन सोचता शायद अधिक व्यस्त होगी, पर नहीं, व्यस्त होती तो अपनी सहेलियों से घंटों बातें न करती। शायद कहीं जाने की जल्दी रहती होगी, यह भी नहीं हो सकता! उसे उसने एक बार भी घर से बाहर जाते नहीं देखा। शायद...! वो हर पल उसे निहारता और सोचता कि वो इतनी निष्ठुर क्यों हो गई? इतने दिन से न भोजन दिया है न ही पानी।  उसे पता है कि मैं गूंगा हूँ, बुला नहीं सकता, लँगड़ा हूँ, चल नहीं सकता। आखिर इस तरह कितने दिन जीवित रहूँगा।


   वह सोच ही रहा था कि अचानक देखा शोभना उसकी तरफ आ रही थी। गौर किया तो देखा उसके एक पैर में पट्टी बँधी हुई है, वह दंग रह गया। शोभना को यह क्या हो गया? कब और कैसे हुआ? कई सवाल उसकी आँखों में तैरने लगे। शायद तकलीफ के कारण ही उसने इतने दिन उसके बिना बिता दिये। पर आज?...  अचानक सुगंधित हवा का एक झोंका हवा में फैल गया।  चिड़ियों के चहचहाने की आवाज़ें आने लगीं। आसमान से काले बादल छंट चुके थे और सूर्य की शीतल किरणें जगमगा रही थीं। देखते देखते शोभना ने भरे गले से अपनी आँखों के आँसू पोंछे और उसे प्यार से पानी पिलाते हुए बताने लगी कि किस तरह उस दिन उसके पास आने की जल्दी में अचानक जल का लोटा गिरने से पाँव फिसल गया और वो इतने समय उससे दूर हो गई। वो क्या उसके बिना एक दिन भी रह सकती है? सारी बातें सुनते ही प्रफुल्लित होकर झूमने लगा वो तुलसी का चौंरा”!  

-कल्पना रामानी  

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-कल्पना रामानी

कथा-सम्मान

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कथाबिम्ब का जनवरी-मार्च अंक(पुरस्कार का विवरण)

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