
कल्पना रामानी
कुमार रवीन्द्र
नवगीत
परिसंवाद-२०१५ में पढ़ा गया शोध-पत्र,
कुमार
रवीन्द्र के नवगीत संग्रह 'पंख बिखरे रेत
पर' में
धूप
की विभिन्न छवियाँ
यह
सर्वविदित तथ्य है कि प्रकृति साहित्य के हर काल और हर वाद में हर विधा की कविताओं
का विशेष अंग रही है, इसे नवगीत में भी देखा और महसूस किया
जा सकता है। आदरणीय कुमार रवीन्द्र जी के नवगीत-संग्रह 'पंख
बिखरे रेत पर' में इस तथ्य को पर्याप्त विस्तार मिला
है।
उन्होंने
अपने नवगीतों में धूप की विभिन्न छवियों को व्यापक अर्थों में विस्तार से व्यक्त
किया है। कहीं धूप उत्साह है, कहीं गति तो
कहीं आशा। कहीं वह उजाला है, कहीं प्राण तो
कहीं नवता। धूप केवल धूप नहीं, सम्पूर्ण जीवन
दर्शन है। अनेकानेक बिम्बों और उपमाओं द्वारा इसे जीवन की अनेक गतिविधियों में
पिरोया गया है।
संग्रह
के पन्ने खुलते ही हमारे सामने हर पृष्ठ के साथ धूप की विभिन्न छबियों के चित्र
खुलते चले जाते हैं।
'धूप की हथेली पर मेहंदी रेखाएँ!
आओ
इन्हें सीपी के जल से नहलाएँ' (पृष्ठ १३)
ये
पंक्तियाँ अपने बिंब के कारण आकर्षित करती हैं जिनमें धूप का मानवीयकरण हुआ है।
लहरों वाली किसी जलराशि के किनारे बैठे हुए धूप के किसी टुकड़े पर, जिस पर वृक्ष आदि की गहरी छाया हो जो मेंहदी की
तरह सुंदर दिखाई देती हो... जहाँ सीपियाँ हों और जहाँ सूर्य जल में प्रतिबिंबित हो
रहा हो- ऐसे दृश्य की कल्पना सहज ही मन में हो जाती है। लेकिन इसमें एक निहितार्थ
भी है। युवावस्था में जब जीवन के रंगमंच का पर्दा धीरे धीरे खुल रहा होता है, जब तेजी से आगे बढ़ने के दिन होते हैं, जब सफलता की ओर कदम रखने का भरपूर समय साहस और
उत्साह होता है तब धूप जैसे उजले खुशनुमा सफर में कभी कभी अँधेरे और निराशा के
दर्शन भी हो जाते हैं लेकिन हम सहज ही उन कठिनाइयों को सुलझाते हैं जैसे सीप के जल
से मेंहदी को नहला रहे हों।
-दिन ‘सोनल
हंस की उड़ान’ शीर्षक गीत में दिन सोनल हंस की उड़ान
हैं, कहकर वे धूप के सुनहरे रंग की सुंदरता
से दिन को भरते हुए कहते हैं-
“दोपहरी अमराई में लेटी हुई छाँव है
भुने
हुए होलों की खुशबू के ठाँव हैं” (पृष्ठ १४, १५)
-एक अन्य गीत ‘खूब
हँसती हैं शिलाएँ’ में हंस जोड़ों को धूप लेकर अमराइयों
में उड़ने की बात कही गई है। इंसान के सुख के दिन इतनी तेज़ी से गुज़र जाते हैं जैसे
कोई सोनल-हंस बिना थके उड़ता चला जा रहा हो। उमंगें इतनी होती हैं कि थकान का पता
ही नहीं चलता और जब दोपहर भी किसी अमराई की छाँव में भुने हुए होलों की खुशबू के
साथ व्यतीत हो तो सुख कई गुना बढ़ जाता है। राह में बहती हुईं बिल्लौरी हवाएँ, खुशबुएँ, साथ
चलती नदी, नदी के जल में सूरज और धूप, किरणों की शरारत, गुज़रते
हुए हंस जोड़े मिलकर एक उत्सव का वातावरण निर्मित कर देते हैं।
-संग्रह के अगले ही गीत में धूप-नदियों
की बात की गई है।
“आँच दिन की बड़ी नाज़ुक
सह
रही हैं धूप नदियाँ” (पृष्ठ १६)

यह
एक उत्सवी गीत है जिसमें सुबह की अंतर्कथाएँ, नाचती
हुईं सोन-परियाँ, मछलियों के जलसे, रोशनी की शरारत और मोती जड़ी घटा के सुंदर बिंब
हैं।
-अगले ही गीत -'धूप
एक लड़की है' में (पृष्ठ १७)
धूप, पार-जंगल के राजा की लड़की है। एक ऐसी
राजकुमारी, जो अपनी इच्छा से दिन भर कहीं भी आ-जा
सकती है, उसे अपने राज्य में सारी सुविधाएँ
प्राप्त हैं। भोर में परियों के समान सुगन्धित हवाओं के साथ आकर झील के पानी से
खेलती है और नदी तट पर नहाती है खुलकर हँसती है, उसके
मन में कोई डर नहीं होता लेकिन रात होते ही अँधेरे से डर कर दुबक जाती है।
-‘खुशबू है जी भर’ शीर्षक गीत में कुमार रवीन्द्र जी कहते हैं-
'नन्हीं सी धूप घुसी चुपके’
(पृष्ठ १८)
गीत
की इन पंक्तियों में गौरैया के माध्यम से नए साल के आगमन का सुन्दर बिम्ब दृश्यमान
हुआ है। कमरे की खिड़की खुलते ही गौरैया का नज़र आना, नन्हीं
यानी प्रातः कालीन शीतल धूप का चुपके से अन्दर प्रवेश करना, कुर्सी पर बैठना, दर्पण
को छेड़ना और छाँव का मेज के पीछे छिप जाना, सूरज
की छुवन से नए कैलेण्डर का सिहरना, बाहर उजालों की
चुप्पी यानी सन्नाटा और आँगन में बेला का खिलना और बच्चों के खेलने की आहट, चौखट पर लिखे हुए सन्देश आदि बिम्ब सर्दी का
मौसम शुरू होने का संकेत दे रहे हैं।
इस
संग्रह की लगभग हर रचना में धूप की बात है।
-अगली रचना पन्ने पुरानी डायरी के में
वे कहते हैं-
“छतों से ऊपर उड़ीं नीली पतंगें
धूप
की या खुशबुओं की हैं उमंगें” (पृष्ठ १९)
इस
नवगीत में ‘पुरानी डायरी के पन्ने’ खुलना और नेह के रिश्तों का याद आना धूप और
उसकी खुशबू के साथ जुड़ा हुआ है। कच्ची गरी का मौसम, छतों
से उड़ती हुई पतंगें देखकर मन भूली बिसरी स्मृतियों में डोलने लगता है। यह धूप ही
तो जन-मन की आस है, जिसकी कामना में कवि ने पूरी गीतावली
रच दी है।
-अगले नवगीत ‘साथ
हैं फिर’ में एक पंक्ति है-
“धूप की पग-डंडियाँ
नीलाभ
सपनों की ऋचाएँ
साथ
हैं फिर” (पृष्ठ २०)
गीत
का भाव यही है कि अगर इंसान के साथ असीम पुलक से भरे पल बाँटते हुए सपने साथ हैं
तो लक्ष्य प्राप्ति में बाधा क्योंकर आएगी। उजालों से भरपूर पहाड़, जंगल की हवाएँ, जीवन
पथ पर नदी, झरने, चट्टानें, ऋषि-तपोवन, अप्सराएँ
आदि बिम्ब इसी बात का संकेत कर रहे हैं
-अगली रचना ‘सुनहरा
चाँद पिघला’ में दो पंक्तियाँ हैं...
“धूप लौटी देखकर खुश हो रहे जल
पास
बैठी हँस रही चट्टान निश्छल” (पृष्ठ २१)
सुबह
की आस में नदी, उसके घाट, नावें
रात भर जागे हैं और जैसे ही भोर की धूप नई उम्मीद के साथ लौटती है, लगता है जैसे सुनहरा चाँद पिघल रहा है।
गीत
में प्रयुक्त दिन को छूने और अँधेरे को उजाले में बदलने का आह्वान करते हुए शब्द, रेत पर पड़ी शंखी, जल
पाखियों के नए जोड़े आदि मन में स्फूर्ति भर देते हैं। उजाले देखकर चट्टान जैसे
मजबूत चेहरों पर भी मासूम हास्य प्रस्फुटित होने लगता है।
-अगली रचना ‘दिन
नदी गीत फिर’ में कवि कहते हैं-
‘आओ धूप नदी में तैरें’।
(पृष्ठ २२-२३)
यह
धूप की नदी उमंगों का पर्याय है, उस पार से दिन बुला
रहे हैं तो उनके साथ ही नीली हवा भी धूप के सुर में खुशबुएँ यानी उमंगें बाँट रही
है, आम और चीड़ के पेड़ों से बाँसुरी की धुन
मन मोह रही है। कवि जन-मन को संबोधित करते हुए कहते हैं, टापू
तक सूरज की छाँव, चन्दन की घाटी, नीले
जलहंस, रूप की कथाएँ सुनाती हुई किरणें, इन सबके रूप में कितना सुख बिखरा हुआ है, फिर क्यों न इन सबका जी भर आनंद उठाएँ।
-‘नदी के जल में उतर कर’ शीर्षक रचना में धूप नदी के जल में उतर कर साँझ
से बात करती है तो ‘गर्म आहट खुशबुओं की’ में वह दबे पाँव कमरे में घुसती है। ‘छाँव के सिलसिले हों’ में
कवि खुशबुओं के शहर से गुज़रते हुए धूप की घाटियों में उतरते हैं (पृष्ठ २७)
कुल
मिलाकर सार यह कि जीवन में अगर सफलता प्राप्त करनी हो तो साधन होते हुए भी पूरे
सब्र और लगन के साथ कर्म-पथ पर चलना होगा साथ ही दिनचर्या में मधुरता और मन के
विचारों को हरा-भरा यानी परिष्कृत रखना भी आवश्यक है तभी आसानी से जीवन के लक्ष्य
को प्राप्त कर सकते हैं।
धूप
के विभिन चित्रों में कहीं धूप की यादें हैं कहीं सूरज के घर हैं और कहीं गीली
हवाओं वाली धूप है। कभी रचनाकार सूरज के पंख हिलते हुए देखता है तो कभी स्वयं को
हवा के द्वीप पर बैठा हुआ सूरज अनुभव करता है।
“मैं हवा के द्वीप पर बैठा हुआ हूँ
कभी
सूरज हूँ, कभी कड़वा धुआँ हूँ” (पृष्ठ ३०)

एक
और बिंब देखें-
“कमरे में दिन है, धूप है, भोला
टापू है
जिस
पर हैं यादें और सूरज के घर” (पृष्ठ ३१)
एक
उदासी वाले गीत में वे कहते हैं-
“सिर्फ आधी मोमबत्ती और धूप की यादें!
पंख
टूटे सोचते हैं किस जगह सूरज उतारें” (पृष्ठ ३२-३३)
ये
पंक्तियाँ आधा जीवन गुज़र जाने का संकेत देती प्रतीत होती हैं, जब थकान भरे क्षणों में उमंगें दम तोड़ने लगती
हैं सिर्फ पुरानी यादें ही उजालों के रूप में विद्यमान होती हैं। तब मन सोचता है
काश! वे दिन फिर से लौट आएँ लेकिन जीवन रूपी धूप को विदा होना ही है तो इसी क्षीण
होते उजाले में ही यादों रूपी ख़त बाँचते हुए दिन गुज़ारने पड़ते हैं।
अम्मा
के व्रत उपवास शीर्षक रचना में धूप का एक नया रूपक सामने आता है-
“पीपल के आसपास, धूप
की कनातें
पता
नहीं कब की हैं बातें”
(पृष्ठ-४०)
शहरों
की भीड़ में इंसान जब बहुत कुछ खो चुकता है तो उसके मन को गाँव के पुराने दिनों की
यादें अक्सर पीड़ा पहुँचाती रहती हैं। त्यौहारों पर पीपल की परिक्रमा करती हुईं
महिलाएँ, माँ के व्रत-उपवास, त्यौहारों की सौगातें, तुलसी
की दिया-बाती, नेह की मिठास से भरा भोजन आदि यादें एक
चलचित्र के समान गुज़रती हैं।
“तचे तट पर धूप नंगे पाँव लौटी
परी
घर में प्रेतवन की छाँव लौटी (पृष्ठ ४४)
निराशा
को प्रतिबिंबित करती ये पंक्तियाँ गीत को नया अर्थ दे रही हैं। जब सपनों की नदी
सूख जाती है, तो मन उदासी की गर्त में उतरता चला
जाता है। ज्यों सूखी रेत पर बिखरे हुए शंख-सीपियाँ व्यथा कथा कह रहे हों और उनकी
सुनने वाला कोई नहीं।
‘धूप नंगे पाँव लौटी’ में आखिरी धूप का क्षण आशा की अंतिम किरण के
रूप में वर्णित हुआ है।
“खुशबुओं का महल काँप कर रह गया
आखिरी
धूप क्षण झील में बह गया”
(पृष्ठ ४६)
जिस
तरह व्यापार के लिए मोतियों की तलाश में निकले हुए सिंदबाद की नावें किनारों से
टकरा-टकरा कर खो जाती हैं,
उसी तरह इंसान जब उल्लास रूपी धूप के
साथ कुछ पाने की चाह में घर से निकलता है और उसे राह में आँख होते हुए अंधे और
संकुचित विचारों वाले लोग मिलते हैं और वांछित फल न मिलने की स्थिति में आशाएँ
धूमिल हो जाती हैं, तो वह यहाँ वहाँ भटकता हुआ निराश लौट
आता है
आगे-
“फूल भोले क्या करें अंधे शहर में
एक
काली झील में डूबे रहे दिन
खुशबुओं
की बात से ऊबे रहे दिन
आँख
मूँदे धूप लौटी दोपहर में” (पृष्ठ
४९)
जहाँ
शासक ही अंधे, यानी जनता पर होने वाले अत्याचार से
बेखबर हों वहाँ फूलों जैसे भोले-भाले मन के लोग क्या कर सकते हैं? अच्छे दिनों की सिर्फ बातें सुनकर वे ऊबने लगते
हैं और आशा रूपी उजाले,
सीढ़ियों की धूप जैसे ठोकर खाए हुए और
टूटे हुए चौखट की तरह खंडहर में बदलते नज़र आते हैं ऐसे में निराश मन गीत कैसे
गुनगुना सकता है।
“धूप के पुतले, खड़े
हैं छाँव ओढ़े
दिन
हठीले, अक्स धुँधले, हुए
पोढ़े
शहर
गूँजों का यहाँ चुपचाप रहिये
इन्हें
सहिये” (पृष्ठ
५१)
यहाँ
धूप के पुतले ऐसे शासकों या सरकारों के प्रतीक हैं जो कपड़े तो उजले पहने हैं
लेकिन कर कुछ नहीं सकते। इसलिये चुपचाप अंधेर सहन करना ही जनता की नियति है।
“क्या गज़ब है, छाँव
ओढ़े
सो
रहे हैं घर
धूप
सिर पर चढ़ी
बस्तियों
में आग के जलसे हुए हैं
नए
सूरज पर चढ़े गहरे धुएँ हैं” (पृष्ठ ५२)
जहाँ
धूप के सिर पर चढ़ जाने तक जनता छाँव ओढ़कर सो रही हो वहाँ बेहतर भविष्य की कल्पना
करना संभव ही नहीं है। बस्तियों में तबाही मची हुई है और नए सूरज रूपी शासक की
आँखों पर धुआँ छाया हुआ है। यहाँ धूप सिर पर चढ़ना मुहावरे का प्रयोग किया गया है।
-“मुँह छिपाए धूप लौटी काँच की बारादरी
से
हाल
सड़कें पूछती हैं भोर की घायल परी से” (पृष्ठ ५८)
धूप
का काँच की बारादरी से लौटना एक रोचक प्रयोग है। जनता न्याय की आस में समर्थों के
द्वार पर लगातार गुहार लगाती तो है लेकिन उनकी सुनवाई नहीं होती, उनकी आवाजें दीवारों से सिर फोड़कर इस तरह लौट
आती हैं जैसे सुबह की सुखद धूप काँच की बारादरी से टकराकर अन्दर जाने का रास्ता न
पाकर वापस चली जाती है।
कुछ
नवगीतों में धूप परी है,
राजकुमारी है, सोने
के महल वाली है, कहीं वह लोगों की मुट्ठी में बंद है, कहीं वह हाँफ रही है और कहीं चतुर बाजीगर धूप
के सपने बेच रहे हैं।
-“बाहर से चुस्त चतुर बाजीगर आए हैं
धूप
के सपने वे लाए हैं
रेती
पर नाव के चलाने का खेल है
बड़ा
गज़ब सूरज का सपनों से मेल है”(पृष्ठ ६९)
बाहर
से आए चतुर बाजीगर धूप से चमकीले उत्पाद विदेशी कंपनियों के वे आकर्षण हैं जिसमें
हम सब फंसते जा रहे हैं।
-“ज़हर पिए दिन लेकर लौटे
जादुई
सँपेरे हैं
धूप
में अँधेरे हैं”
ये
पंक्तियाँ एक ऐसे राज्य का हाल बयाँ कर रही हैं जहाँ नाम को तो मीनारें, गुम्बज आदि रूपी सुख सुविधाएँ मौजूद हैं लेकिन
शासक स्वयं इनको निगलकर इस तरह व्यवहार कर रहे हैं जैसे किसी सँपेरे ने उजले दिनों
को विष पिलाकर अँधेरे में बदल दिया हो।
-“धूप ऊपर और नीचे छाँव’
(पृष्ठ ७२)
ये
पंक्तियाँ सुविधा संपन्न शासकों और असुविधाजनक जीवन जीते जन साधारण की ओर इशारा
करती हैं। एक स्थान पर वे पदच्युत राजनयिक के बारे में बात करते हुए कहते हैं –
-“काँच घरों की चौहद्दी में, कैद हुए सूरज
जश्न
धूप के ज़िन्दा कैसे, यही बड़ा अचरज” (पृष्ठ
७५)
यहाँ
यह स्पष्ट करने की कोशिश की गई है कि पद पर रहते समय ही कुछ लोग इतना संग्रह कर
लेते हैं कि पद छिन जाने के बाद भी उनके ऐशो आराम में कोई कमी नहीं आती।
अगली
रचना में धूप एक बच्चा है जो दिन के मसौदे अपने हाथ में पकड़े हुए है। एक नवगीत
में धूपघर की छावनी है लेकिन फिर भी गहरा अँधेरा हर ओर बिखरा है। कहीं रचनाकार धूप
लेकर ऐसे शहर में आने की बात करता है’ जहां सूरज मुँह
ढँक कर सोए हुए हैं, तो कहीं लोग घने सायों से घिरे धूप से
ऊबे हुए हैं। एक गीत में धूप एक बूढ़ी किताब है और एक अन्य गीत में धूप की हथेली
पर राख के दिठौने लगे हैं।
-“धूप में छाँव में
जल
रहीं पत्तियाँ
हर
गली-गाँव में” (पृष्ठ
८७)
जैसे
पतझर में पेड़-पौधों की पत्तियों पर धूप या छाँव का कोई असर नहीं होता और वे सूखकर
या जलकर गिर जाती हैं,
इसी तरह अब लोगों पर अच्छी या बुरी
किसी भी बात का कोई असर नहीं होता।
कुमार
रवीन्द्र जी के इस संग्रह में ७५ गीत संकलित हैं। सुगठित शिल्प, सटीक बिम्ब, सुन्दर
उपमाओं और सार्थक भावों के साथ धूप की विभिन्न छबियाँ प्रतिबिंबित करते हुए ये
गीत-पंख किसी मनोरंजक उपन्यास के अनेक पात्रों की तरह पाठक के मन के साथ चलते हुए
जीवन जीने के नए रास्ते तलाश करने की जिज्ञासा पैदा कर, पाठक
को जीवन का सार सौंपकर विदा लेते हैं।
ये
न केवल कल्पना की आकर्षक छवियाँ बुनते हैं बल्कि समकालीन शासक वर्ग, समाज, संस्कृति, निराशा, उदासी
और उत्साह की विभिन्न समस्याओं को भी ईमानदारी से अपने शब्द देते हैं।
यह
जीवन प्रकृति का एक अनमोल उपहार है, उजाले हमें
विरासत में मिले हैं। इनसे ही जीवन में उर्जा है, संगीत
है, पर्व हैं, ओज
है, मौज है, जहाँ
उजालों की रवानी होगी वहीं ज़िन्दगी में जवानी भी होगी। कुल मिलाकर यह कि इस संग्रह
में नवगीतकार कुमार रवीन्द्र द्वारा रचित धूप की अनंत छवियाँ हमें प्रेरित करती है, सचेत करती हैं और आशान्वित भी करती है। हम सब
इस उजली धूप के गुणों को,
उसकी खुश्बू को पहचानें, अपने जीवन में उतारें और उम्मीदों के नए पंख
पहनकर संभावनाओं के अनंत आकाश में उड़ान भरें, इन
पंखों को टूटने या बिखरने न दें।
-कल्पना रामानी
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