गरमी के
मौसम में शाम होते ही सोसायटी का मनोरंजन स्थल गुलज़ार होने लगता है। कुछ
बाल-बच्चे और युवतियाँ तरण ताल को अपनी क्रीड़ाओं से आल्हादित करते हैं तो कुछ
झूलों पर अपना आसन जमाए दिखते हैं। यहीं कुछ
वरिष्ठ महिलाओं का समूह लॉन की हरी घास पर
बैठकर अपने बतरस की बौछारों से वातावरण में रस घोलने का काम करता है। इनमें रमा,
उमा,
विमला
और कांता बड़बोली हैं बाकी सब सुनना अधिक, बोलना कम
वाले सिद्धान्त की अनुगामी।
आज की चर्चा का विषय कुछ विशेष था,
उसी
सिलसिले में सबके चेहरों पर उत्साह की झलक स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी।
रमा-अब कुछ काम की बात हो जाए कांता,
कल प्रमिला के यहाँ चलना है न, ड्रेस कोड
तय कर दीजिये। कहते हुए रमा ने बातचीत का रुख मोड़ दिया।
उमा-हाँ हाँ,
हमें इसी दिन का तो बेसब्री से इंतज़ार होता है,
इलायची वाली सुगंधित चाय के साथ प्रमिला के हाथ की चटपटी पकोड़ियाँ...आहा! अभी से
मुँह में पानी आ रहा है।
विमला-हाँ यार,
यह तो है लेकिन साथ में जो नीरस कविताएँ वे परोसती हैं,
उनको झेलना भारी पड़ जाता है।
नीता- सच कहा विमला, मुझे तो कवि और कविता के नाम से ही चिढ़ है,
लेकिन मुफ्त का लज़ीज़ माल मिले तो कुछ देर
यों ही वाह-वाह करने और ताली बजा देने में हर्ज ही क्या है?
विमला- लेकिन प्रमिला का मन एक-आध कविता से कहाँ
भरता है, वे तो वाहवाही सुनकर और भी जोश
से इस तरह शुरू हो जाती हैं, कि पीछा
छुड़ाना ही मुश्किल हो जाता है।
नीता- हाहाहा... वे समझती हैं हम उनकी कलम के कमाल
पर फिदा हैं, यही नहीं कविता पाठ से थक जाती
हैं तो पत्र-पत्रिकाओं का ढेर लगा देती हैं कि देखो यह कविता यहाँ छपी और यह वहाँ...
विमला- एकदम बोर...उसे क्या पता कि हम केवल समय काटने और दावत उड़ाने के खयाल से ही उनके घर जाती हैं। अब हमसे तो यह सब होता नहीं कि घर में महफिल जमाएँ,
नीचे मिल लिए, बातें हो गईं बहुत है। उसे अपनी
तारीफ सुननी होती है तो यह सब करती है, खैर...
कांता- हाँ तो सखियों,
मन का गुबार शांत हो गया हो तो मेरी बात सुन लो- अगर सबके पास उपलब्ध हो तो कल के
लिए हम आसमानी साड़ी-ब्लाउज़ निश्चित कर लेते हैं,
मौसम के अनुरूप रहेगा…कहते हुए कांता ने पूरे महिला
मण्डल पर दृष्टि घुमाई। सबने सहमति में सिर हिला दिया।
तभी वहाँ एक तरफ बेंच पर बैठी हुई युवती जो उनकी
बातें ध्यान से सुन रही थी, बोली-
आंटीजी, आप सब
दिखती तो शालीन हैं लेकिन जिसने इतने प्यार से आप लोगों को आमंत्रित किया है उसकी पीठ पीछे इतनी बुराई... मुझे समझ में नहीं
आया।
कांता- तुम कौन हो बेटी,
लगता है यहाँ नई आई हो...
युवती- जी हाँ मैं यहाँ नई हूँ,
कल ही अपनी माँ से मिलने यहाँ आई हूँ, मैं उसी बोर? कवयित्री, प्रमिला की बेटी हूँ।
सुनते ही महिला-मण्डल को जैसे साँप सूँघ गया।
-कल्पना रामानी
1 comment:
बहुत अच्छी प्रस्तुति
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