“आस्था बेटी, अब उठो वहाँ से और नहा धोकर तैयार हो जाओ...जब देखो तब इसी पेड़ के आसपास बनी रहती हो, मिशन स्कूल में पढ़ते-पढ़ते लगता है तुम्हारा दिमाग भी मिशनरी हो चला है...”। उदिता ने भुनभुनाते हुए ६ वीं कक्षा में पढ़ने वाली अपनी बेटी से कहा। पिछले साल क्रिसमस पर उसी ने तो बेटी की ज़िद के कारण फर का यह पेड़ अपनी बगिया में लगवाया था। वो एक साल के अंदर बेटी में होने वाले आश्चर्य जनक बदलाव से चकित थी, लेकिन अब उसकी अर्धवार्षिक परीक्षाएँ चल रही थीं अतः चुप थी।
परीक्षाएँ समाप्त हुईं, क्रिसमस की छुट्टियाँ भी लग गईं लेकिन बिटिया का पेड़ के आसपास बने रहने का क्रम नहीं टूटा तो उदिता ने चिंतित होकर सख्ती के साथ उसे शाम के समय पेड़ों से दूर रहने की हिदायत दी।
“यह पेड़ क्रिसमस पर हर इच्छा पूरी करता है माँ! बस मेरी प्यारी माँ, मैं क्रिसमस के बाद इस पेड़ के पास नहीं जाऊँगी!” माँ के गले से लटकती हुई आस्था मनुहार के स्वर में बोली।
“लेकिन ऐसी कौनसी इच्छा है हमारी बेटी की, जिसे हमने पूरा नहीं किया?”
“वो मैं इच्छा पूरी होने के बाद ही आपको बताऊँगी माँ”।
कहते हुए आस्था फुदकती हुई बगिया में वहीं अपने प्रिय पेड़ के पास पहुँच गई। उदिता ने भी सोचा कि क्रिसमस के बाद वो सब भूल जाएगी लेकिन हद तो तब हो गई जब आस्था ने क्रिसमस पर अपने फर के पेड़ को सजाने और सहेलियों को आमंत्रित करने की बात कही। उदिता मन ही मन पछताने लगी कि नाहक उसने बेटी की ज़िद मानकर इस पेड़ को घर में जगह दी। उसने बेटी को समझाते हुए कहा-
“बेटी जब तुम्हारे स्कूल में हर साल यह त्यौहार इतनी शान से मनाया जाता है और हम भी तुम्हारे साथ ही जाते हैं तो क्या इस बार तुम अपने स्कूल की क्रिसमस पार्टी में नहीं जाओगी”?
कहते हुए उदिता की आँखों में उसके स्कूल का पूरा दृश्य साकार होने लगा- क्रिसमस ट्री की भव्य सजावट, चारों ओर झिलमिलाती हुई दूधिया रोशनी, विशेष यूनिफ़ोर्म में सांता क्लाज़ के साथ थिरकते हुए सुंदर बच्चे, आमंत्रित पालक गण, मेरी क्रिसमस कहकर स्वागत करती हुई ननें और फादर, कितना भव्य और व्यवस्थित आयोजन होता है। अंत में सौहार्दपूर्ण माहौल में खाना-पीना सम्पन्न होता है फिर सबको अगले साल फिर आने की मनुहार के साथ सादर विदाई दी जाती है।
“हाँ माँ, इस बार मैं घर पर ही क्रिसमस मनाना चाहती हूँ”।
हारकर उदिता को स्वीकृति देनी ही पड़ी। उसने क्रिसमस ट्री की सजावट के साथ ही उसकी सहेलियों के लिए पार्टी की व्यवस्था भी कर दी। सब कुछ सानंद सम्पन्न हो गया लेकिन अगले ही दिन बिटिया को सर्दी जुकाम लग गया। माँ पिता उसे तुरंत उसके होम्योपैथिक डॉक्टर के पास ले गए। डॉ॰ ने विस्तार से आस्था से सारी जानकारी ली फिर दवाइयाँ देते हुए चिंतातुर स्वर में माँ-पिता को क्रिसमस ट्री को स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद बताकर विस्तृत जानकारी के साथ बेटी को किसी मैदानी शहर में ले जाने की राय दी। सुनकर उदिता के तो होश ही उड़ गए। छुट्टियाँ तो थीं ही उसने पति से उनके पैतृक गाँव चलने के लिए कहा। गाँव में आस्था शीघ्र ही स्वस्थ होने लगी। छुट्टियाँ पूरी होते ही वे अपने घर आ गए। लेकिन अभी सर्दियाँ खत्म होने में बहुत समय था और उनका शहर पहाड़ी पर स्थित होने के कारण ठंड भी बहुत पड़ती थी तो अब पति-पत्नी पेड़ को नष्ट करने के उपाय सोचने लगे।
स्कूल खुलने के साथ ही आस्था का परीक्षा परिणाम भी आ गया। वो पूरी कक्षा में प्रथम आई थी और रिपोर्ट माँ को देते हुए फूली नहीं समा रही थी। आज उसने राज़ खोलते हुए उदिता को बताया कि कैसे पिछले साल एक नई लड़की ने उसके स्कूल में प्रवेश लेने के साथ ही हमेशा अपनी कक्षा में प्रथम आने वाली आस्था को अर्धवार्षिक-वार्षिक परीक्षाओं में पीछे छोड़ दिया था। क्रिसमस पर उसने पेड़ से उसी पोजीशन पर वापस पहुँचने की प्रार्थना की थी। साथ ही उसने सहमी आवाज़ में डरते-डरते माँ से पूछा-
“माँ तुम क्या यह पेड़ कटवा दोगी”?
उदिता ने बेटी की आँखों की सारी भाषा पढ़ ली थी, उसने बिटिया की आस्था के प्रतीक उस पेड़ से मुक्ति पाने के बजाय युक्ति से काम लिया और बेटी को गले लगाती हुई बोली-
“नहीं बेटी, यह त्यौहार भगवान ईसामसीह के जन्म दिन के रूप में मनाया जाता है लेकिन अब हम क्रिसमस तुम्हारे ननिहाल में मनाया करेंगे।"
बच्चे नादान तो होते ही हैं, आस्था भला कैसे खुश न होती, उसके पेड़ को अभयदान जो मिल गया था...।
-कल्पना रामानी
No comments:
Post a Comment