अनाथालय में पली बढ़ी साँवली-सलोनी कजली के तन का रंग जितना काला था, गुणों का रंग उतना ही उजला. ईश्वर ने उसमें गुण कूट-कूट कर भरे थे. इन्हीं गुणों के कारण ही उसके सास-ससुर ने उसे अपने बेटे विनोद के लिए पसंद किया था. उसकी आवारगी और उच्चश्रंखलता के कारण कोई भला इंसान अपनी बेटी उसके साथ ब्याहना पसंद नहीं करता था। विनोद कजली को बेहद प्यार करता था लेकिन केवल रात के समय, दिन में वो उससे बात करना तो दूर, नज़र उठाकर देखता तक न था। कजली को उसका यह व्यवहार किसी दोमुँहे साँप जैसा महसूस होता और वो तिलमिला कर रह जाती थी।
“विनोद, अभी हमारे विवाह को केवल ६ महीने ही हुए हैं और मैं देख रही हूँ कि तुम्हारा रंग आजकल बदलने लगा है। रात में तो तुम्हारा रंग और ही होता है, मैं तुम्हारी रानी, परी, हुस्न की मलिका और वगैरा, वगैरा होती हूँ...तुम मेरे बिना रह नहीं सकते...लेकिन दिन में... ”
विनोद की महिला मित्र के जाते ही कजली बिफरकर बोली। वो आए दिन उसकी महिला मित्रों को घर लाकर अपने सामने ही चुहलबाजी और छेड़छाड़ से खुद को अपमानित महसूस करने लगी थी।
“वो क्या है डियर कि, रात में तुम्हारा काला रंग नहीं दिखता न...लेकिन अब यह जान लो कि अगर मेरे साथ रहना है तो तुम्हें मेरे दोनों रंग स्वीकार करने होंगे। मैंने तुमसे विवाह केवल अपने माँ-पिता की सेवा करने के उद्देश्य से किया है, वे ही तुम्हारे गुणों पर रीझे थे।” विनोद ढिठाई के साथ बोला।
“कदापि नहीं, अगर ऐसा है तो मैं यहाँ से जा रही हूँ हमेशा के लिए... एक तीसरे रंग की तलाश में, जो मुझे अपने निश्छल प्रेम से सराबोर कर सके। मैं अनाथ, अबल ज़रूर हूँ लेकिन आत्मबल से वंचित नहीं...” कहते हुए कजली अपने सामान सहेजने लगी।
तभी
अचानक कमरे का दरवाजा एक धक्के के साथ खुल गया और माँ ने अंदर आकर गरजते हुए कहा-
“मैंने तुम दोनों की सारी बातें सुन ली
हैं। बहू, तुम कहीं नहीं जाओगी, तुम्हें वो तीसरा रंग भी विनोद में ही
मिलेगा, मैं उसे जानती हूँ...। आज के बाद इस घर
में उसके साथ कोई महिला मित्र नहीं आएगी...”
कहते हुए उसने
विनोद की तरफ आशा भरी नज़रों से देखा, विनोद ने कजली की तरफ और कजली ने अपनी नज़रें झुका लीं.
- कल्पना रामानी
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