“सुन तो सुनन्दा…!”
-कहो प्रतिमा
सोसाइटी
की ये दो सखियाँ प्रातः भ्रमण के साथ बत-रस का मोह भी नहीं छोड़ पातीं। आसपास की
इमारत में रहने वाली सुनन्दा और प्रतिमा पक्की सहेलियाँ हैं। प्रतिमा ने गति कुछ
धीमी करते हुए कहा-
“तुमने सूचना तो पढ़ ही ली होगी। युवा
महिला-संघ द्वारा दिवाली पर हर साल होने वाले आयोजनों में इस बार युवा महिलाओं के
लिए रंगोली प्रतियोगिता रखी गई है, निर्णय
के लिए पड़ोसी सोसाइटी के वरिष्ठ नागरिक संघ के सदस्यों को आमंत्रित किया जाएगा
ताकि पक्षपात न हो। दस इमारतों में से एक-एक महिला का चुनाव होगा, हमें भी प्रतिभागियों में नाम लिखवाना
चाहिए, कहीं मौका हाथ से न निकल जाए"।
-सच कह रही हो प्रतिमा, हमें आज ही चलकर अपना नामांकन करवाना
पड़ेगा। दस बजे मैनेजर अपने कक्ष में आ जाता है, हम वहीं मिलते हैं।
दस
महिलाओं में उन दोनों का चुनाव भी प्रतियोगिता के लिए हो गया। सभी ने तय किया कि
कल से ही अपने-अपने फ्लैट की देहरी पर अभ्यास शुरू कर देंगे।
अभ्यास
शुरू हो गया। शाम को प्रतिमा और सुनन्दा एक दूसरे की रंगोली देखने जातीं। प्रतिमा
ने गौर किया कि जिस सुनन्दा को ठीक से रंगोली बनाना आता ही नहीं था, न जाने कैसे सुंदरता से रंगों का
संयोजन कर रही थी। आखिर उससे रहा न गया और एक दिन पूछ ही लिया-
“सुनन्दा, तुमने रंगों का इतना सुंदर संयोजन कहाँ
से सीखा?”
-मैं तो तुम्हारी सासु माँ, सुषमा चाची से सीख रही हूँ प्रतिमा, उनको सुबह घूमते हुए देखा करती थी तो
अनुरोध करके सिखाने के लिए कहा। तुम कितनी खुशनसीब हो जो इतनी हुनरमंद और
मृदु-भाषी सास के सान्निध्य का सुख पा रही हो!
प्रतिमा
सोच में पड़ गई। उसने तो सास को कभी कोई महत्व ही नहीं दिया, पति हमेशा हर बात में, रसोई हो या घर का रखरखाव, माँ की तारीफ करता रहता था, तो वह धीरे धीरे सुषमा को हाशिये पर धकेलती गई। सुषमा हर दिन सुबह
नहा धोकर नियम से देहरी पर रंगोली माँडा करती थी, रसोई में भी उसका भरसक सहयोग करती
लेकिन उसे अपनी सहेलियों जैसे आज़ाद रहना
पसंद था जिनके परिवार गाँव में थे और वे पति-बच्चों के साथ स्वतंत्र थीं। मगर ससुर
जी रहे नहीं और निखिल इकलौता बेटा है तो सास को साथ रखना उसकी मजबूरी थी। उसने मन ही मन कुछ निश्चय
किया। कल अभ्यास का अंतिम दिन था, परसों
सुबह प्रतियोगिता आरंभ हो जाएगी और उसी दिन शाम को सार्वजनिक सभा में पुरस्कार भी
दिये जाएँगे। सुबह जैसे ही सुषमा नहा धोकर नीचे जाने लगी तो उसने बड़े अपनत्व से
रोककर कहा-
“माँ जी,
कल
हमारी सोसायटी में रंगोली प्रतियोगिता है और मैं भी उसमें प्रतिभागी हूँ, लेकिन आज सिर में बहुत दर्द है तो
अभ्यास नहीं कर पाऊँगी। आज आप ही रंगोली बनाइये मैं आपको देखकर सीखने का प्रयास
करूँगी”।
भोली सुषमा आश्चर्य और खुशी से उसका
मुँह देखने लगी,
उसकी धुँधली आँखों में चमक आ गई, बोली- ठीक है बहू, आज घूमने नहीं जा रही। फिर उसने अपने
पुराने सामान की पोटली से धूमिल पड़ी हुई रंगोली के नमूनों वाली पुरानी पुस्तिका
निकली और देहरी पर मनोयोग से बनाने में जुट गई। उसने अपनी पूरी क्षमता लगा दी, दो घंटे रंगोली बनाने में लग गए
प्रतिमा मुग्ध होकर ध्यान से देखती और समझती रही। आज तक इतना सुंदर नमूना उसने
नहीं देखा था। रसोई में भी सुषमा ने सहायता की। दूसरे दिन सुबह सभी प्रतिभागी
महिलाएँ अपनी अपनी इमारत के प्रवेश द्वार
के एक तरफ रंगोली बनाने में जुट गईं। निर्णायक घूम-घूम कर आनंद लेते रहे। सभी
अपनी-अपनी जीत को लेकर पूरी तरह आश्वस्त थीं। उस दिन घर पर रहकर भोजन सुषमा ने ही
बनाया। दोपहर को भोजन करते हुए निखिल ने कहा-
“वाह! आज तो भोजन का अलग ही स्वाद है, बहुत दिनों के बाद इतना लज़ीज़ भोजन बना
है, प्रतिमा!”
निकट ही बैठी सुषमा ने इस उम्मीद के
साथ नज़रें घुमाईं कि बहू उसकी तारीफ करेगी लेकिन वो तो पति से तारीफ सुनकर
मुस्कुरा रही थी। सुषमा की आँखों की चमक फिर गायब हो गई, जैसे तैसे भोजन किया और वहाँ से उठ गई।
शाम को सब तैयार होकर मुख्य सोसायटी के आयोजन वाले मुख्य हॉल में एकत्रित हुए।
प्रतिमा भी पति और दोनों बच्चों के साथ चली गई लेकिन मन अशांत होने के कारण सुषमा
नहीं गई। देर रात को जब सब लोग वापस आए तब तक सुषमा की आँख लग चुकी थी। दूसरे दिन
धनतेरस थी। बहू सुबह से जल्दी-जल्दी सारे काम निपटाकर पति व बच्चों के साथ त्यौहार
पर ख़रीदारी के लिए बाजार चली गई। शाम को जब सब दिया-बाती के समय लौटे तब तक सुषमा
की आँख लग चुकी थी।
अचानक
शोर से उसकी आँख खुली तो देखा सब उसके कमरे में एकत्रित हैं। बहू ने एक पैकेट सुषमा के हाथ में देकर पाँव
छूते हुए कहा- माँ जी यह आपके लिए साड़ी और शॉल है, दिवाली पर आपको यही पहनकर पूजा में
शामिल होना है। मुझे रंगोली प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला है और यह केवल
आपके ही कारण संभव हुआ है। फिर पति की ओर मुड़कर कहने लगी-
“निखिल, माँ जी ने न केवल मुझे रंगोली की
बारीकियाँ सिखाईं बल्कि कल दिन का भोजन भी बनाकर मुझे आराम दिया, अब मैं समझ चुकी हूँ कि घर में बड़ों का
होना कितना महत्वपूर्ण है”।
निखिल
ने मुसकुराते हुए कहा-“अब
समझ में आया उस स्वाद का रहस्य”!
बच्चे जो अपने लाए हुए सामान खोलने में व्यस्त थे, दादी
का हाथ पकड़कर एक-एक करके उनको दिखाने लगे। सुषमा की धुँधली आँखों के सामने जैसे
सैकड़ों दिये जगमगा उठे। -कल्पना रामानी
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