माँ को आते देख,
१२ वर्षीय बिटिया अंजलि ने चाय का पानी गैस-चूल्हे पर चढ़ा दिया,
लेकिन लाइटर दिखाने से पहले ही मंजरी ने
इशारे से मना कर दिया और अपने झोले से दूध की खाली थैलियों वाला पोली बैग
निकाल लिया। झट से सभी थैलियों को काटकर सीधा किया और पानी की पतीली में डाल दिया।
नीर को क्षीर में बदलते देख बिटिया की नयन-झील में जमी उदासी की काई में सहसा कमल
गए। खुशी से भरकर बोल उठी-आहा, दूध की
चाय!...मंजरी के मुख पर संतुष्ट मुस्कान फैल गई। उसके मन के सारे विषाद उन थैलियों
के साथ ही धुल चुके थे।
किस्मत ने इस खाते-पीते घर की खुशियाँ अचानक निगल
ली थीं। गृहस्वामी को सरकारी बैंक की
क्लर्क की नौकरी से चोरी के शक में हटाकर केस कर दिया गया था,
बस तभी से दुर्भाग्य का साया घर पर राहु-केतु बनकर मँडराने लगा था। सारी जमा पूँजी
वकीलों की भेंट चढ़ चुकी थी और घर में भोजन के भी लाले पड़ गए थे। इकलौती बिटिया को
प्राइवेट स्कूल से हटाकर सरकारी स्कूल में दाखिल करवा दिया गया। दूध तो दूध,
चाय भी काली बनने लगी थी। पति-पत्नी तो किसी तरह गले से उतार लेते लेकिन बिटिया को
मिश्री वाले दूध के स्थान पर गुड की काली चाय देखकर उबकाई आने लगती।
आखिर जब तक पति को कोई और काम मिल जाए,
मंजरी
ने रोटी जुटाने की खातिर पति से आज्ञा लेकर कुछ ही दूरी पर बनी एक सोसाइटी के २-३
घरों में सुबह-शाम खाना पकाने का काम ले लिया। मुँह अँधेरे ही काली चाय पीकर रूखी
सूखी दो रोटियाँ, चटनी के साथ लेकर काम पर
निकल जाती। वहाँ अनुरोध के बावजूद न कहीं चाय पीती न ही कुछ खाती,
कोई
न कोई बहाना बना देती। आखिर संस्कार-गत स्वाभिमान इतनी जल्दी कैसे छूटता?
फिर
घर पर बैठे बेरोज़गार पति और रूखी रोटी खाकर स्कूल जाने वाली बिटिया के मुरझाए
चेहरे भुलाकर कैसे कुछ खा-पी सकती थी?
प्रतिदिन काम
की शुरुवात दूध उबालने से होती, घर-मालकिन जब जल्दबाज़ी में बड़ी सी पतीली में
दूध की पैक थैलियाँ कट लगा-लगा कर उँड़ेलती जाती और खाली थैलियाँ एक तरफ सरका देती
तो उन थैलियों में काफी दूध बचा रह जाता था, मंजरी को खाना बनाते और किचन समेटते
हुए उन थैलियों में बिटिया के लिए दूध की चाय नज़र आती। सोचती कि थैलियों में इतना दूध
व्यर्थ फेंकने के बजाय अगर वो घर ले जाए तो...
और आखिर एक दिन उसके स्वाभिमान ने सारे मानदंड भुला दिये और ममता की पुकार पर अपनी
आत्मा की आवाज़ का गला घोंटकर उसने समझौता कर ही लिया।
No comments:
Post a Comment