६)
माँ के लिए
माँ के लिए
अपनी पत्नी व बच्चों के साथ दीपावली की ख़रीदारी के
लिए कई घंटों से निकले परेश की नज़रें माल में अचानक कपड़ों के एक स्टाल पर टंगी हुई
सुंदर सी साड़ी पर ठहर गईं। उसने पत्नी को
आवाज़ देकर बुलाया और पूछा-
“सुधा डियर,
यह साड़ी तुम्हारी माँ के ऊपर कैसी लगेगी”?
- अरे वाह! बहुत सुंदर साड़ी है,
यह कलर तो ममा को बहुत पसंद है खूब फबेगा उनके ऊपर,
लेकिन तुम उन्हें यह साड़ी किस अवसर पर देने वाले हो? उनसे
मिले हुए भी काफी समय गुज़र गया है।
“लेकिन डियर!
मैं यह साड़ी अपनी माँ के लिए खरीद रहा हूँ, बस ज़रा
तय नहीं कर पा रहा था। अब जल्दी घर चलो वे इंतज़ार कर रही होंगी,
उन्हें डॉक्टर के पास भी लेकर जाना है”।
-कल्पना रामानी
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७)
अपना खून
“किसका फोन
था सोनल? अरे, यह
तुम्हारा चेहरा क्यों उतरा हुआ है, क्या हुआ?”
अखबार
समेटकर रखते हुए विशाल ने पत्नी की ओर देखते हुए पूछा।
- पिताजी का फोन था विशु… भैया-भाभी
उनको बहुत परेशान करने लगे हैं। उनकी किसी बात की वे परवा नहीं करते। माँ के बाद तो
वे वैसे भी कितने अकेले हो गए हैं न, और अब...भाभी
तो ठीक है, पराए घर की है लेकिन भैया को तो उनका कुछ खयाल रखना चाहिए, वो तो उनका अपना खून है न ...रुआँसी
आवाज़ में सोनल ने बताया।
“तुम बिलकुल सच कह रही हो सोनल,
मैंने
भी बहुत बड़ी भूल की जो पिताजी को तुम्हारे कहने में आकर वृद्धाश्रम पहुँचा दिया,
आज
ही उनको घर लेकर आता हूँ...” विशाल जैसे गहरी निद्रा से जागते हुए बोल उठा।
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८)
“अरे कृपाराम तुम यहाँ?”
पुण्य लाभ की कामना से विद्याधर ने मंदिर की
सीढ़ियों पर कतार में बैठे हुए भिखारियों के कटोरों में सिक्के डालते हुए जब अपने
पुराने मित्र को वहाँ देखा तो उसके बढ़े हुए हाथ में अचानक ब्रेक लग गया।
प्रत्युत्तर में कृपाराम की आँखों से अविरल आँसुओं
की धार बह निकली।
बताओ कृपाराम! तुम्हारी यह दशा कैसे हुई?
परिवार
के सब लोग कहाँ हैं?
आँसू पोंछते हुए कृपाराम बोला-
क्या बताऊँ विद्या, तुम्हारे
लाख समझने के बावजूद मेरे स्वार्थी मन ने अपने पिता को वृद्धाश्रम में भर्ती करवा
दिया था, लेकिन उन्होंने उस यातनागृह से
जान बचाकर इन्हीं सीढ़ियों की शरण ली थी। एक बार देव दर्शन के विचार से मैं इस
मंदिर की तरफ आया था तो दूर से ही पिताजी पर नज़र पड़ गई। उन्होंने मुझे नहीं देखा
था, अतः मैं वहीं से वापस चला गया और फिर कभी इस
तरफ नहीं आया। लेकिन अनजाने में वे मुझे यह विरासत सौंप गए।
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९)विमर्श
शाम को चाय का कप लेकर दक्षा लॉन में बैठी ही
थी कि डोर-बेल बजी। कप रखकर उसने दरवाजा
खोला तो बेटी तान्या के साथ आई हुई महिलाओं को देखकर सवालिया नज़रों से तान्या की
ओर देखा-
“माँ,
ये
सब महिला-मुक्ति अभियान दल की सदस्य हैं, आपकी
समस्या पर विमर्श के लिए मैंने इन्हें बुलाया है”।
आप इन सबकी आपबीती और मुक्ति के लिए संघर्ष की कथा सुनेंगी
तो जान जाएँगी कि आज की नारी अबला या अशक्त नहीं रही जो पति का बेवजह अत्याचार सहन
करती रहे”।
आज
फिर माँ-पिता के कमरे से कहासुनी की ऊँची आवाज़ें आने के बाद पिता को बाहर जाते और
माँ को गीले नैन पोंछते हुए उनकी युवा बेटी तान्या ने देख लिया था।
दक्षा ने सबको आदर से अंदर बिठाकर तान्या को चाय
बनाने के लिए अंदर भेजा फिर महिलाओं की ओर मुखातिब होकर संयत स्वर में बोली -
“आप सभी बहनों का वार्ता के लिए हार्दिक स्वागत है लेकिन पहले मैं अपनी दो बातें आपके समक्ष रखूँगी। पहली यह कि मैं नारी के उस रूप की पक्षधर हूँ जो हर हाल में घर-परिवार तोड़ने नहीं जोड़ने में विश्वास और परिस्थितियों को अपने हौसलों से बस में करने की क्षमता रखती है। दूसरी यह कि अगर आप सब अपने मौजादा हालात से पूरी तरह संतुष्ट हैं तो मैं भी आपके इस अभियान में शामिल हो जाऊँगी”।
तनुजा की बातें सुनकर सभी महिलाओं की निगाहें आपस में विमर्श करने लग गईं।
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१०)
लालच
वह शिकारी बड़ी देर से आश्चर्यचकित होकर उस चिड़िया
को देख रहा था जो उसके बिछाए जाल में दाने न चुगकर चारों तरफ घूम-घूम कर जाल के
कोने चोंच से उठा-उठा कर कुछ दूरी पर अपने चूजों की तरफ देखती हुई चीं-चीं कर रही
थी। शिकारी सिर्फ चिड़िया ही नहीं, उन
चूजों को भी उदरस्थ करना चाहता था, अतः उसे
इंतज़ार था कि कब वे चूज़े दाने चुगने आएँ
और वो...
लेकिन यह क्या!
अचानक चिड़िया उड़ी और शिकारी के कान में चोंच मारकर यह कहते हुए अपने चूज़ों के पास
पहुँच गई कि- “मूर्ख शिकारी, मैं
तुम्हारी लालची प्रवृत्ति को बहुत अच्छी तरह जानती हूँ,
मैं तो अपने बच्चों को पेट भरने के लिए लालच में आकर जाल के पास न आने की हिदायत
के साथ उन्हें अपनी सुरक्षा के गुर सिखा रही थी”।
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११)अन्नपूर्णा
उसकी अंतरात्मा चीख-चीख कर कह रही थी-
“अन्नपूर्णा,
अगर इस अकाल के समय भी तुमने अगर अपने संचित दानों का उपयोग नहीं किया तो तुम्हारे
नाम की क्या सार्थकता?”।
और... अन्नपूर्णा ने नोट बंदी से व्यथित पति को आज
ज़रूरी राशन न जुटा पाने के कारण चिंतित देखकर बरसों से पति की नज़रें बचाकर छोटे
नोटों और रेजगारी के रूप में रखी हुई अपनी सारी जमा-पूँजी पति को नज़र कर दी।
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१२)रंग
“विनोद,
अभी
हमारे विवाह को केवल ६ महीने ही हुए हैं और मैं देख रही हूँ कि तुम्हारा रंग आजकल
बदलने लगा है। रात में तो तुम्हारा रंग और ही होता है, मैं
तुम्हारी रानी, परी, हुस्न
की मलिका और वगैरा, वगैरा होती हूँ...तुम मेरे
बिना रह नहीं सकते...लेकिन दिन में... ”
विनोद की महिला मित्र के जाते ही कजली बिफरकर बोली।
वो आए दिन उसकी महिला मित्रों को घर लाकर अपने सामने ही चुहलबाजी और छेड़छाड़ से खुद
को अपमानित महसूस करने लगी थी।
“वो क्या
है डियर कि, रात में तुम्हारा काला रंग नहीं
दिखता न...और अब कान खोलकर सुन लो- अगर मेरे साथ रहना है तो तुम्हें मेरे दोनों
रंग स्वीकार करने होंगे। मैंने तुमसे विवाह केवल अपने माँ-पिता की सेवा करने के
उद्देश्य से किया है, वे ही तुम्हारे गुणों पर रीझे
थे।” विनोद ढिठाई के साथ बोला।
“कदापि नहीं, अगर
ऐसा है तो मैं यहाँ से जा रही हूँ हमेशा के लिए... एक तीसरे रंग की तलाश में,
जो मुझे अपने निश्छल प्रेम से सराबोर कर सके। मैं अनाथ,
अबल ज़रूर हूँ लेकिन आत्मबल से वंचित नहीं...” कहते हुए
कजली अपने सामान सहेजने लगी। तभी
अचानक कमरे का दरवाजा एक धक्के के साथ खुल गया और माँ ने अंदर आकर गरजते हुए कहा-
“मैंने तुम दोनों की सारी बातें सुन ली हैं। बहू, तुम
कहीं नहीं जाओगी, तुम्हें वो तीसरा रंग भी विनोद
में ही मिलेगा, मैं उसे जानती हूँ...। आज के बाद
इस घर में उसके साथ कोई महिला मित्र नहीं आएगी”...
कहते हुए माँ ने विनोद की ओर और विनोद ने कजली की
ओर देखा। कजली ने सिर झुका लिया और पूरे माहौल में एक खुशनुमा रंग बिखर गया।
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