रचना चोरों की शामत

कुदरत के रंग

कुदरत के रंग

Monday 30 January 2017

पीली साड़ी

Image may contain: one or more people and people standing “क्या सोच रही हो वाणी अम्मा! अब तुम्हारा सुपुत्र नहीं आने वाला, यह चौथा बसंत है और उसने तुम्हारी सुध नहीं ली, क्या अब भी आस बाकी है”?

-क्यों नहीं, तुम शायद भूल गई हो, पिता की मृत्यु के बाद उनका विधि-पूर्वक क्रियाकर्म उसीने आकर करवाया था और मुझे अकेली देखकर पूरी सुखसुविधा वाले  इस आश्रम में भर्ती करके घर बेचकर सारा पैसा मेरे नाम जमा करके गया फिर हर बसंत पंचमी पर मिलने भी आता रहा।

“तुम्हें अकेली देखकर वो हमेशा के लिए स्वदेश वापस भी तो आ सकता था न”?

-जब भूल हमारी ही थी कि उसे विदेश की राह दिखाई और वहीँ विवाह करके बस जाने की सहर्ष अनुमति भी दी, फिर अपना कैरियर छोड़कर वापस कैसे आ जाता?  ये चार साल तो...बच्चे छोटे थे न, समय ही नहीं मिला होगा।

“अपनों के लिए समय निकाला जाता है अम्मा, अपने आप कभी नहीं मिलता”

-देखो, अब उसका बेटा चार और बिटिया दो साल के हो चुके होंगे, इस बार वो ज़रूर आएगा।

“पर उसका कोई फोन भी तो नहीं आया, एक तुम हो कि इस दिन हर साल बच्चों के नाम का पौधा लगाकर उनके जीवन में सदैव बसंत बना रहने की लिए दुवाएँ माँगती हो”। 
 
-यह तो मैं अपनी ख़ुशी के लिए करती हूँ री, माँ हूँ न... और इस दिन से मेरी यादें भी तो जुड़ी हुई हैं, भला उसके बचपन के वे दिन कैसे भूल सकती हूँ जब बसंत-पंचमी के दिन से पूरे एक माह तक मुझे हरी-पीली अलग-अलग डिजाइनों वाली साड़ियों में तैयार होते देखकर वो खुद भी वैसे ही रंग के वस्त्र पहनकर तितलियाँ पकड़ने, झूला झूलने, मेरे साथ बगीचे चला करता था। वो मुझे बहुत प्यार करता है, मेरे बिना उसे भी चैन नहीं होगा, हो सकता है वो मुझे सरप्राइज देना चाहता हो।

  “ऐसा होता तो वो अब तक आ चुका होता अम्मा, मान जाओ कि अब वो अपने परिवार में व्यस्त होकर अपना फ़र्ज़ भूल चुका है, जल्दी से उठो और तैयार हो जाओ, बाहर पौधारोपण का कार्यक्रम शुरू होने वाला है, आश्रम की सेविका तुम्हें लेने आती ही होगी

-ओह! शायद तुम सही कह रही हो... पर मुझे तो अपना फ़र्ज़ पूरा करना ही है...


 और स्वयं से ही संवाद करती हुई वाणी अम्मा ने एक गहरी साँस के साथ कमरे की सिटकनी अन्दर से चढ़ाकर सामने ही रखी हुई आश्रम से मिली हरी किनारी वाली पीली साड़ी उठा ली।  

-कल्पना रामानी

2 comments:

Unknown said...

Wah!!!!

pappu said...

कहानी का अंत एकाएक ही ऐसा क्यों?😢

पुनः पधारिए

आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

-कल्पना रामानी

कथा-सम्मान

कथा-सम्मान
कहानी प्रधान पत्रिका कथाबिम्ब के इस अंक में प्रकाशित मेरी कहानी "कसाईखाना" को कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार से सम्मानित किया गया.चित्र पर क्लिक करके आप यह अंक पढ़ सकते हैं

कथाबिम्ब का जनवरी-मार्च अंक(पुरस्कार का विवरण)

कथाबिम्ब का जनवरी-मार्च अंक(पुरस्कार का विवरण)
इस अंक में पृष्ठ ५६ पर कमलेश्वर कथा सम्मान २०१६(मेरी कहानी कसाईखाना) का विवरण दिया हुआ है. चित्र पर क्लिक कीजिये