रचना चोरों की शामत

कुदरत के रंग

कुदरत के रंग

Sunday 22 January 2017

समाधान

बेटा अगर समझदार हो तो परिवार टूटने या माँ-पिता को अपमानित महसूस होने का सवाल ही नहीं उठता. इसी भाव को चित्रित करती हुई लघुकथा-
पति पत्नी में चर्चा के लिए चित्र परिणाम

“पूरे तीन साल बाद हम भारत, अपने घर जा रहे हैं, न जाने माँ-पिता कैसे होंगे”। उत्साह से भरपूर देवांश ने जाने की तैयारियों में लगी दक्षा को संबोधित करते हुए कहा। अमेरिका में जॉब लगने के बाद उनको लगभग १० वर्ष हो चुके थे। इस बीच वे दो बच्चों के माँ-पिता भी बन गए। सात वर्षों तक तो वे हर साल भारत जाते रहते थे, लेकिन इस बार फासला लंबा हो गया था।
  
“ठीक ही होंगे, हर दिन तो फोन पर बातचीत होती ही है न।” दक्षा ने रूखा सा उत्तर दिया.
“मगर सामने देखने का आनंद ही और होता है डियर...”

"वो बात तो है देव, लेकिन इस बार हम होटल में ही रुकेंगे, अब हमारे बच्चे भी घूमने लायक हो गए हैं तो मैं घर जाकर चूल्हे-चौके में नहीं उलझने वाली"।

“यह कैसे हो सकता है दक्षा, कि माँ-पिता के होते हुए हम होटल में रहें? क्या तुम उनका अपनापन, वो सहयोग भूल गई हो,  जब हर बार उन्होंने हमारे छोटे-छोटे बच्चों को सँभालकर हमें घूमने-फिरने की आज़ादी दी। अब तो समय आया है कि हम उनको भी घर से बाहर अपने साथ घूमने-फिरने ले जाएँ"। 
 दक्षा भला भारत जाने के वे शुरुवाती साल, जब बच्चे नहीं थे, कैसे भूल सकती थी कि वे जहाँ भी घूमने जाते, देवांश माँ-पिता को भी चिपकाकर चलते थे, लेकिन बाहर से बोली-   

"इसके लिए मैं उनका आभार मानती हूँ देव, लेकिन इस बार हम पूरे एक महीने के लिए जा रहे हैं तो मैं वहाँ इत्मिनान से घूमना-फिरना चाहती हूँ। और हम माँ-पिता से मिलने जाते रहेंगे न प्लीज़..."

देवांश उलझन में पड़ गया। पत्नी को नाराज़ करके तो छुट्टियों का आनंद ही किरकिरा हो जाएगा और माँ-पिता को तो किसी हालत में नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
लेकिन समस्याएँ हैं तो समाधान भी मिल ही जाता है, उसने चुटकी बजाते हुए कहा-

“ठीक है डियर, मैं होटल में रहने की व्यवस्था करवा देता हूँ। अब ज़रा बाजार होकर आता हूँ उनके लिए कुछ उपहार खरीदने हैं”।

  हवाई जहाज़ के भारत-भूमि पर उतरते ही देवांश ने टैक्सी तय करके ड्राइवर को सीधे होटल चलने को कहा तो दक्षा ने मन ही मन कॉलर ऊँची करके स्वयं को दाद देते हुए कहा- 

“लो दक्षा, कितनी आसानी से तुमने सास-ससुर का पत्ता काट दिया।”

होटल पहुँचकर उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई।  देवांश ने उसे बताया कि उसने किचन, बैठक, और भोजन कक्ष के अलावा दो बेडरूम बुक किए हैं। 
दक्षा हैरत में पड़कर बोली-

“लेकिन इतना सब हम क्या करेंगे देव, व्यर्थ ही खर्च बढ़ नहीं जाएगा”?

देवांश मुस्कुराते हुए बोला-

“यह नीचे वाला कमरा माँ-पिता के लिए है डियर, हम वहाँ रहने नहीं जा सकते, पर वे तो यहाँ आ सकते हैं न और अपनी इच्छा से घूमने-फिरने के अलावा कुछ बना पका भी सकते हैं। तुम ऊपर जाकर कमरा सेट करो तब तक मैं उन्हें लेकर आता हूँ”।  

-कल्पना रामानी

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-कल्पना रामानी

कथा-सम्मान

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कहानी प्रधान पत्रिका कथाबिम्ब के इस अंक में प्रकाशित मेरी कहानी "कसाईखाना" को कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार से सम्मानित किया गया.चित्र पर क्लिक करके आप यह अंक पढ़ सकते हैं

कथाबिम्ब का जनवरी-मार्च अंक(पुरस्कार का विवरण)

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