भोर की आँख खुलते ही यमुना ज्यों ही बाहर आई, देखा कि उसके घर की बाजू वाली ज़मीन पर अधिकार कर लिया गया है और उसकी बगिया की कंटीली बाड़ हटाकर खुदाई की जा रही है। उसके सामने मिट्टी का ढेर पड़ा हुआ था और उसे अपने सपने मिट्टी होते हुए दिख रहे थे। अनेक वर्षों से इसी मिट्टी ने उसके लिए दो जून की रोटी जुटाई है। क्यारियों में लगे हुए फूलों के पौधों ने उसकी गृहस्थी की बगिया को प्राण दिये हैं। फूल ही तो उसके जीने का सहारा हैं, यहाँ इनकी माँग बहुत है और बिक्री से काफी आमदनी भी हो जाती है। आज तक तो उसने सोचा भी न था कि अचानक उसे इस खुशी से बेदखल कर दिया जाएगा, लेकिन कर भी क्या सकती थी जब वो जगह उसके अधिकार में ही नहीं।
पिछले कई सालों से यमुना अपने पति और दो बच्चों के साथ
गरीबों की इस बस्ती में रह रही है। दिन में यहाँ के सभी पुरुष दिहाड़ी-मजदूरी के लिए
और महिलाएँ सामने की सोसायटी की बहुमंज़िली इमारतों में घरेलू काम करने के लिए निकल
जाते हैं, लेकिन यमुना की एक माली की बेटी होने के कारण उन कार्यों में कोई रुचि नहीं
है। रहने के लिए आवास मिल जाने से वो गाँव छूटने का दर्द भूल चुकी है। इमारतें बनने के समय से ही यहाँ एक बस्ती बसा दी गई थी ताकि मजदूर आसानी से काम
करते रहें। अब इन छोटे-छोटे घरों के साथ लगे हुए ज़मीन के टुकड़ों पर भी घर बनाए जा रहे
हैं। यमुना ने तो इसी टुकड़े पर अपना सपनों का शहर बसा लिया था। सुबह से रात तक फुलवारी
की सेवा और फूल चुनने के बाद घर के सामने छोटे से आँगन में चटाई पर बैठकर मालाएँ बनाया
करती और बच्चे सोसायटी के घरों में फूल-मालाएँ दे आते। उसका पति तो कहा करता था कि इतनी मेहनत करना व्यर्थ
है, यह ज़मीन हमारी नहीं, लेकिन यमुना लापरवाही
से सिर झटक देती। उसके सपने ऊँचे थे, वो बच्चों को पढ़ा-लिखा कर
अच्छी ज़िंदगी देना चाहती थी। लेकिन अब...
-कल्पना रामानी
1 comment:
बहुत सुंदर
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