रचना चोरों की शामत

कुदरत के रंग

कुदरत के रंग

Thursday 11 August 2016

फर्ज़ की डोर

    
 सावन का महीना लगते ही मेघा के कानों में पड़ने वाली हर आवाज़ घुँघरुओं की रुनझुन में बदल जाती है और ज्यों ज्यों राखी पर्व निकट आने लगता है, यह आवाज़ तेज़ होती जाती है।
मेघा तीन भाई बहनों में सबसे बड़ी है। उससे ५ साल छोटी बहन मनीषा और १२ साल छोटा मनुज, जिसे प्यार से सब मुन्नू कहते हैं, जिसके लिए माँ के साथ-साथ उसने भी हर मंदिर में सिर नवाया, पीर पूजे, देव मनाए।  आखिर उनकी मुराद पूरी हुई और बहनों के लिए प्यारा सा भाई आँगन की बहार बनकर आ गया। मुन्नू के जन्म के आठ महीने बाद ही सावन का महीना लग गया। मेघा की खुशी का ओर-छोर न था। उसने मन ही मन तय किया कि शहर के बाजार की सबसे सुंदर राखी मुन्नू के लिए लाएगी।

 पर्व से १५ दिन पहले ही मेघा ने अपनी पहचान के एक दुकानदार को अपने मन की बात बताकर कहा कि उसे ऐसी राखी चाहिए जो बाजार में सबसे निराली हो।  मेरा छोटा सा मुन्नू राखी बँधवाकर जब घुटनों-घुटनों हाथ टेकता हुआ चले तो घुँघरुओं की आवाज़ आने लगे। दुकानदार ने मुस्कुराकर उसे आश्वस्त किया और कहा कि दो दिन बाद आकर अपनी राखी ले जाए। मेघा ये दो दिन जैसे-तैसे काटकर तीसरे दिन दुकान पर पहुँच गई। राखी देखकर तो उसकी बाँछें ही खिल गईं। रंगबिरंगी चौड़े पट्टे की सुंदर राखी में घुँघरू इस तरह टंके थे कि बच्चे को चुभने न पाएँ। खुश होकर उसने दुकानदार को राखी के मुँहमाँगे दाम देकर धन्यवाद कहा और घर आ गई। उसके बाद हर वर्ष वो अलग-अलग रंग और डिजाइन में घुँघरुओं वाली राखी बनवाकर मुन्नू को बाँधती।

  यह पहला सावन था जब वह मुन्नू से दूर थी, उसका विवाह मायके के निकट के शहर में चार माह पहले ही हुआ था, उसकी सास और पति अनय खुले विचारों के तथा सहयोगी स्वभाव के थे, उसे अपने निर्णय खुद लेने की पूरी आज़ादी थी।  रिवाज के अनुसार पहली राखी पर मायके से लेने भाई या पिता को आना था लेकिन मुन्नू अभी छोटा था और पिताजी का स्वास्थ्य अक्सर खराब रहता था, अतः उसने स्वयं ही एक दिन पहले पहुँचने की सूचना माँ-पिता को दे दी थी।
     
  मेघा ने सुबह जल्दी उठकर घर के सारे काम निपटा कर टैक्सी वाले को आने के लिए फोन कर दिया और तैयार होने के लिए अलमारी से कपड़े निकाल ही रही थी कि सास की चीख सुनकर उस ओर भागी। देखा कि बाथरूम के फर्श पर पैर फिसलने से वे गिर गई थीं। मेघा ने जल्दी से उनको सहारा देकर उठाया और कमरे में ले गई। उनके पाँव में मोच आ गई थी और दर्द भी होने लगा था। उसने हल्दी-तेल गरम करके सास के पाँव पर लगाकर लिटा दिया। अब तो उसके सामने असमंजस की स्थिति बन गई। सास को  इस हालत में छोडकर कैसे जाएअनय कल ही अपनी बहन को लेने उसकी ससुराल चला गया था, और कल तक ही आ सकेगा। ममतामई सास ने कहा भी कि बेटी चली  जाओ, चोट मामूली है, अनु आकर सँभाल लेगी।  लेकिन ऐसा करने से पति के मन को ठेस  पहुँचती, और वो भी सारी जवाबदारी ननद पर नहीं डालना चाहती थी। आखिर स्नेह की डोर पर फर्ज़ की डोर हावी होने लगी और भरी आँखों से उसने फोन करके पिता को सारी स्थिति से अवगत करवाकर टैक्सी वाले को मना कर दिया। 

     रात में रोते-रोते कब उसकी आँख लग गई, पता ही नहीं चला। तड़के उठकर सारे कामों से निपटकर उसने अपना सामान वापस अलमारी में रखते हुए एक नज़र राखी को उदास मन से देखा। सहसा उसे लगा कि राखी बँधवाकर मुन्नू हाथ हिला-हिला कर दौड़ रहा है और घुँघरू बज रहे हैं। हैरानी से वो इधर उधर देखने लगी। आवाज़ तो घुँघरूओं की आ रही थी  लेकिन  यह डोर-बेल बज रही थी जो उसके ही कहने पर अनय ने घुँघरुओं की आवाज़ में सेट करवाई थी। दरवाजा खोला तो सामने पिताजी के साथ मुन्नू को देखकर आश्चर्य-चकित रह गई। पिता ने अंदर आते हुए ढेर सारे उपहारों के पैकेट मेघा के सामने रखते हुए कहा- "बेटी, सुबह से मुन्नू ने कुछ नहीं खाया, एक ही ज़िद कि दीदी से घुँघरुओं वाली राखी बँधवाकर ही कुछ खाएगा, तो मैंने  आने का मन  बनाया, सोचा इस बहाने समधन से मिलना भी हो जाएगा।मेघा ने मुन्नू को गले लगा लिया, और दोनों के नैन सावन की झड़ी के साथ बरस पड़े।                          

-कल्पना रामानी

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कथा-सम्मान

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कथाबिम्ब का जनवरी-मार्च अंक(पुरस्कार का विवरण)

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