रचना चोरों की शामत

कुदरत के रंग

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Monday 16 January 2017

बाल-श्रम /लघुकथा

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“यहाँ क्यों खड़े हो बच्चे, तुम्हें क्या चाहिए?” कहते हुए गाँव के दो कमरों वाले उस एकमात्र सरकारी विद्या-मंदिर के एक मात्र शिक्षक रमाकांत ने सवालिया नज़रों से उस भिखारी से दिखने वाले बालक से पूछा।

“कुछ भोजन मिलेगा बाबूजी? सुबह से भूखा हूँ”। उसने सामने ही पाठशाला के आँगन में भोजन करते हुए बच्चों को देखते हुए कहा।
“देखो, अगर तुम यहाँ प्रतिदिन पढ़ने आओगे तो भोजन, कपड़े, किताबें, सब मुफ्त मिलेगा, तुम्हें भीख नहीं माँगनी चाहिए”। 

“मैं पढ़ना चाहता हूँ बाबूजी लेकिन मेरा कोई घर नहीं है, भीख नहीं माँगूँगा तो खोली वाले दादा को पैसे कहाँ से दूँगा और अगर एक दिन भी पैसे न दिये तो वो खूब पिटाई करेगा। अगर यहाँ मुझे काम मिल जाए तो मैं पढ़ाई के साथ-साथ वो भी कर लूँगा”।

   रमाकांत सोच में पड़ गया। वो यहाँ सरकार की तरफ से शिक्षक के पद पर कई वर्षों से ईमानदारी और समर्पित भाव से अपनी सेवाएँ दे रहा था। वो उस बालक की पढ़ने में रुचि देखकर सहायता तो करना चाहता था लेकिन उसे कौनसा काम सौंपे जिससे उसकी समस्या हल हो जाए। हर काम के लिए कर्मचारी नियुक्त थे। सरकारी भुगतान से ही सारा खर्च चलता था लेकिन पूरा हिसाब वही रखता था। उसने बालक को साफ कपड़े पहनकर अगले दिन आने के लिए कहा।

“लेकिन बाबूजी साफ कपड़े दादा नहीं पहनने देता। वो कहता है, कपड़े जितने गंदे और फटे-पुराने होंगे, भीख उतनी ही अधिक मिलेगी”।
“ठीक है, तुम यहाँ आकर कपड़े बदल लिया करना और जाते समय अपने कपड़े पहन लेना”।
बालक ने सहमति में सिर हिला दिया।

रमाकांत ने उसे विद्यालय के छोटे-मोटे कार्य सौंपकर उसके लिए दैनिक वेतन तय कर दिया। वो कक्षा शुरू होने से काफी पहले आकर उत्साहपूर्वक अपने कार्य पूरे कर लेता और कक्षा शुरू होते ही एक तरफ बैठकर चुपचाप मनोयोग से पढ़ाई करने लगा। समय बीतने लगा, लेकिन अच्छाई पर हमला करने के लिए बुराई तो ताक में रहती ही है... उस भिखारी बालक की विद्यालय में उपस्थिति न जाने कब, किसकी आँख की किरकिरी बन गई और... 

आज के स्थानीय समाचार-पत्र में यह समाचार सुर्खियों में था-
“बाल-श्रम” कराने के आरोप में सरकारी विद्या-मंदिर का शिक्षक रमाकांत सेवा कार्य से निलम्बित”। 

  
 -कल्पना रामानी

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कथा-सम्मान

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कथाबिम्ब का जनवरी-मार्च अंक(पुरस्कार का विवरण)

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